माँ कह रही बैठ सिरहाने
उठ जाओ मेरे लाल, देखो सवेरा हो गया!
टेशू फूलों पर तितलियाँ सहकी
भ्रमर गुंजन से कलियाँ बहकी
बागों में कूकू कोयल कहकी
मोर लगे नाचने मैना चहकी
गौरैया भी आ गयी तुम्हे जगाने
तुम भी करो धमाल, देखो सवेरा हो गया!
फूल फूल खुशबू से महके
मदिरालय सा गुलशन बहके
शैल शिला रक्तिम हो चमके
अरुण चाहूओर आ धमके
वासर धवल रश्मियाँ लगा फ़ैलाने
तुम भी न फेरो गाल, देखो सवेरा हो गया!
मंद पवन सरकाए घुंघट
सखियाँ नाचे, नाचे पनघट
मन मयूरा बदले करवट
दिल चुराएँ सावरिया नटखट
प्रेम बावरी लगी पायल खनकाने
तुम भी मिलाओ ताल, देखो सवेरा हो गया!
दक्षिण ने मलय समीर बहाई
नदियाँ सापिन सी लहराई
निशाचर भाग गये अकुलाई
प्रकृति ने तोड़ी अपनी जम्हाई
शबनम भी कही गयी मुंह छुपाने
तुम भी धरो रूप विकराल, देखो सवेरा हो गया!
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✍सुरेन्द्र नाथ सिंह “कुशक्षत्रप”✍
बहुत खूबसूरत रचना है। सर!
स्वाति mam, अति आभार आपका…….रचना पढने और प्रतिक्रिया देने हेतु…..!
प्रकर्ति की मनोभावन सुंदरता के साथ बच्चे को जगाना बहुत हाइ अच्छा लगा सुरेन्द्र नाथ जी
राजीव जी, आपकी मधुर प्रतिकिया के लिए आभार…..!
सुरेंद्र माँ के प्यार और प्रकृति के सौंदर्य को समेटे बेहतरीन रचना. लेकिन “सहकी” का अर्थ स्पष्ट करें .
शिशिर सर सहकना मतलब आतुर होना, आप उसके जगह कोई उपयुक्त शब्द चयन में सहयोग करे तो उसे बदल दू मै, काफी सोचने के बाद भी खोज नहीं पाया कुछ…!
आपके अनवरत प्रेम के लिए महती धन्यवाद!
और भी प्रबुद्धजनो से सह्की शब्द के जगह कोई उपयुक्त शब्द देने की विनम्र विनती करता हूँ… वैसे हमारे यहाँ सहकना भी एक शब्द चलन में था, इसलिए मैंने रखा है पर कोई और शब्द मिलते ही तुरंत हटा लूँगा।
क्या ख़ूबसूरत वर्णन किया है सुबह सवेरे का, मज़ा आ गया …………………… बहुत बढ़िया सुरेन्द्र जी !!
अति आभार………सर्वजीत सिंह जी!