इश्क़ में तेरे इस कदर मेरे जज़्बात हो गए….
सुनते ही दर्द किसी का भी हम यूं ही रो पड़ें…
मौजें जुनूए इश्क़ में थे आसमान पे हम….
ठोकर लगी जो वक़्त की ज़मींदोज़ हो पड़े…
कुछ इस रंज से विदा किया तूने जहाँ से हमें….
दुश्मन भी जिसको देख के बेबस हो रो पड़े….
मौत इस कदर हसीं होगी क्या किसी की कभी “चन्दर’…
छुआ था ज़ख़्मों को तूने यहाँ..वहां से कँवल खिल पड़े…
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/सी.एम शर्मा (बब्बू)
बब्बू जी इस रचना में आप जो कहना चाह रहें है कही भटक गया है. रचना सुधार मांगती है
जी…मैंने कोशिश की है….नज़र कीजिएगा….बहुत बहुत आभार आप का….
बब्बू जी माफ़ करें पर कही न कही कुछ बैठ नहीं रहा, हर शेर की उपर निचे ली पक्न्तिया भी सेट नहीं हो प् रही। आप कर सकते है……..आप की सोच में गहराई है उस जरूरत है एक सही shape देने की!