यह कविता मानव जीवन में घटित होने वाली घटनाओं के भय पर
आधारित है।
मैंने अपने स्वप्न को साकार होते देखा है,
निराकार ब्रह्म को भी आकार होते देखा है,
मिल भी जाए जो रत्न जड़ित सीप सागर में,
पर मैंने तो बालू के घरौंदों को भी स्वणसार होते देखा है……..
मैंने अपने………….
राह में जीवन की चट्टानें मुश्किलों की मिल जाती हैं,
पर मैंने तो प्रस्तर को भी मोम-सा पिघलते देखा है,
डूबती नइया को भी पार होते देखा है,
मैंने…………
क्या कहूँ जब मैं भी था जवाँ
कितनी थी ख्वाहिशें कितनी थे अरमान
पर डर था न स्वप्न साकर हो
और टूट जाए मेरे सपनों का आशियाँ
पर मैंने अपनी ख़्वाहिशों अरमानों को ज़ार-ज़ार होते देखा है
मैंने अपने………………..।
-स्वरचित
युगल पाठक
सरस्वती अकादमी,
हल्द्वानी,उत्तराखण्ड।
युगल ऐसे ही लिखिए….अच्छा लिखते है…
Very nice expression of thoughts…..