कितना मजबूर हूँ आज मै खुद के अफसाने से!
उजड़ चुकी है बगिया मेरी महबूब तेरे जाने से!!
तुझको हर पल चाहा पर किसी से कह न सका!!
तू हो गयी किसी की, अब क्या होंगा पछताने से!!
समय दिया था भरपूर तूने, मै ही आ न सका!
तेरी भी क्या गलती, तूम मजबूर थी ज़माने से!!
मुझे गुरूर हद से ज्यादा था अपनी किस्मत पर!
सोचा लिया था कौन रोकेगा तुझे अपना बनाने से!!
बारिश की बुँद भी छुएँ तुझे, बर्दास्त न था मुझे!
अब कैसे रोकूंगा तुझे किसी के बाहों में जाने से!!
सोचता हूँ काश की बचपन में ही तुझे माँग लेते!
हर चीज मिल जाती थी बस दो आँसू गिराने से!!
तू जहाँ भी रहे, हर ख़ुशी पैबंद हो तेरे कदमों में!
मेरा क्या…..
एक टुटा काँच, फर्क नहीं अब और टूट जाने से!!
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✍सुरेन्द्र नाथ सिंह “कुशक्षत्रप”✍
वाह क्या बात बात….बहुत खूबसूरत…बहुत उम्दा….
धन्यवाद बब्बू जी…………..!
आज तो महोब्बत भरी गजल वो भी टूटे हुए दिल की ………………. लाजवाब सुरेन्द्र जी !!
सर्वजीत जी, आपसे ही कुछ सिखा है, बस आशीर्वाद बनाये रखिये।
बेहतरीन रचना और सुंदर भाव जैसे दिल निकाल कर रख दिया हो
शिशिर जी, चरण स्पर्श, आशीर्वाद बनाये रखें…!
क्या बात है रचना में जिस तरह लफ्जो का लय के साथ इस्तेमाल किया है तारीफ ऐ काबिल है ………..अति सुंदर !!
बस आपका आशीर्वाद है गुरुजन……..अति आभार……
बहुत खूब सर ।।।।।।
i am commentless about you n your honour….