Homeगिरीराज किराडूदो अर्थ का भय दो अर्थ का भय विनय कुमार गिरीराज किराडू 13/03/2012 No Comments अपमान बेहद था होने का रक्त के दरिया में दौड़ते घुड़सवार थे किसी और से नहीं अपने आप से थी शर्मिंदगी हर साँस में हर शब्द का एक अर्थ दुख दूसरा मज़ाक था – जीवन में कल्पना में पर नहीं था इनमें से कुछ भी यही मेरा गुनाह कल्पना में सुखी था मैं Tweet Pin It Related Posts पैर छूना मतीरे मेज इतनी पुरानी थी About The Author विनय कुमार Leave a Reply Cancel reply Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment.