दीर्घ पथ पर एक अबला ,अपने क्षण को काट रही थी।
नेत्र बुझे उसके दोनों थे,शायद आँखोँ में प्यास रही थी।
नभ में अवतरित मेघ काले थे,मन मन में कुछ फुसफुसा रही थी।
सफर कटा अब कटता ही चला,मृत्यु भी तो समीप ना आ रही थी।
शायद दोपहर का पहर था वह,धूप नहीं वर्षा आ रही थी।
तीव्र गति से मेघों के झुण्ड,झटपट झटपट वर्षा रही थी।
वह तो पहले ही मर रही थी,वर्षा उसकी पीड़ा और बढ़ा रही थी।
तन अधीर पट विक्षीण थे,किसी तरह बिछौने से लिपटा रही थी।
दीर्घ राह से निकले सब थे,लोगों ने देखा पर ना पुकार रही थी।
वर्षा वर्षा वर्षा घनघोर घटा से,आँखों में प्यास पर ना प्यास रही थी।
मौत के रास्ते हुए कई हैं,शायद वही पथ तलाश रही थी।
मौत बन रही सौत उसे थी,जो उसे अति प्रताड़ित कर रही थी।
मन्नते माँगी उसने कितनीं,मृत्यु उसके पास आने से शर्मा रही थी।
शरीर जीर्ण पद घायल थे,श्वासों से शीत वायु बहा रही थी।
एक आध ही दृष्टि पड़ी थी,लगता था जैसे वह मर रही थी।
लगता था मुझको कुछ ऐसा,मृत्यु भी जनों की भाँति घृणा कर रही थी।
जीवित रखता है वह सबको ,वह मरती मरती जी रही थी।
सब की होती ख़्वाहिशें व्यापक,पर वह व्यापक मृत्यु बुला रही थी।
महसूस करूँ तो ऐसा लगता,मृत्यु तो फ़रमान ही ना सुना रही थी।
पर मृत्यु उसके पास खड़ी थी, वह मृत्यु के समीप मृत्यु उससे दूर जा रही थी।
दीर्घ पथ पर एक अबला , अपने क्षण को काट रही थी।
सर्वेश कुमार मारुत
सर्वेश कुमार जी, नारी के मर्म को उकेरने में आपकी रचना मर्मस्पशी है…
आपने सांसारिक सत्य और आध्यात्मिक सत्य के बीच के द्वन्द को अच्छे शब्द दिए है.
नारी मर्म को छूती खूबसूरत रचना !!