क्या कीमत मेरे बचपन की |
अब कौन मुझे बतलायेगा ||
हवस भरी नज़रों से देखो |
आज मुझे कौन बचायेगा |
हाथ पैर तोड़ कहाँ कैसे |
किस को कौन बेच आयेगा ||
देख कर मेरी मासूमियत |
कौन कहाँ ठग ले जायेगा ||
कैद हुआ है बचपन मेरा |
दीवारों में मर जायेगा ||
खुली हवा में शायद देखो |
बचपन साँसे ले पायेगा ||
महकी डालिया, चहकें राह |
दानों को भून रही बुढ़िया ||
मिटटी के खिलौने ग़ुम कहाँ |
खेले न खेल गुड्डे गुड़िया ||
साईकल का पहिया ले कर |
कभी गली गली में भागना ||
बिठा कर कंधों पर ही साथ |
बापू का मेले ले जाना ||
सरे आम मेरे अंगो को |
भरे बाजार बेचा जाता ||
भूखे कभी मरे सड़को पर |
जग को तरस नहीं आता ||
सब ने घोटालों के किस्से |
इक दूजे को देखो सुना दिये ||
दर्द भरी मेरी दास्ताँ के |
शब्द जुबां से हटा दिये ||
सरकार, समाज, मीडिया ने |
खुद को चुप्पी में है ढाला ||
दिखता नहीं मुझे बचपन में |
होगा कोई कभी उजाला ||
स्वार्थ में जी रहा जमाना |
बेकार “मनी” दर्द सुनाना ||
क्या कीमत मेरे बचपन की |
अब कौन मुझे बतलायेगा ||
मनिंदर सिंह “मनी”
Bahut sahi bhaav uthaaye hain aapne…bachpan ki bhaawna ke…Aaj ke paripeksh mein Jo akele pad gaye hain…bahut sundar…
thanks c m sharma ji
यह कविता आज के शहरी परिवेश और मानव तश्करी के सन्दर्भ में काफी सटीक है……
धन्यवाद सुरेन्द्र नाथ जी
समसामयिक महत्वपूर्ण रचना
धन्यवाद शिशिर जी
व्यवहारिक जीवन में इसके सैकड़ो उदहारण है जंहा इस प्रकार की परिस्थितियो से बचपन को जूझना पड़ता है …सही विषय पर अपने भावो को प्रस्तुत कर समाज के प्रति अपनी संवेदनाओ को बखूबी पेश किया है ………..बहुत अच्छे मनी !!
धन्यवाद निवातियाँ जी