नौ कन्या
आज सुबह ही
बीवी ने मेरी
मुझे धंधेड़ा
और उठाया ।
आंखें मलते मैं उठ बैठा
क्या है भाग्यवान ,
क्यों शोर मचाया
क्या कहीं आंधी है आई
या फि र भूकंप है आया
कभी तो चैन से सोने दो
क्यों घर को सिर पे उठाया ।
ना रात को चैन
ना दिन में चैन
शादी करके बहुत पछताया ।
यह सुन बीवी तुनक कर बोली
जब देखो तुम्हें तो मैं
आती हूं नजर विष की गोली ।
अब हिस्से आई हूं तुम्हारे
अपने आप मुझे तुम भुगतो ।
पर आज पता है तुम्हें क्या
आज नवराता अंतिम माँ का
और व्रत है अंतिम मेरा
मुझे करना है उद्यापन माँ का ।
पूरा सामान तैयार है अब तो
बस बारी है पूजा की
पूजा में चाहिए नौ कन्या
नौ व्रत किये हैं मैनें
पूरी नौ की नौ कन्या ।
सून उठा बिस्तर से मैं
लेने चला पडोस में कन्या ।
देख मुझे तब अचरज हुआ
पड़ोस में ना थी कोई कन्या ।
घंटे घुमा दो घंटे घुमा
नौ की बात तो बिल्कुल अलग थी
मुझे मिली ना कोई एक कन्या ।
घर आया तो बीवी बैठी थी
देख अकेला मुझे वह बोली ।
देर इतनी लगाई कहां
साथ तुम्हारे नही हैं कन्या
यह सुन मैं रोने लगा ।
इस बात का प्रिये मैं
खुद ही जिम्मवार हूं ।
पैसे मैनें खुब कमाएं
पेशे से मैं डॉक्टर हूं ।
अल्ट्रासाऊंड कर अबोर्सन किये
कन्या भू्रण गर्भ से गिरा दिये ।
पड़ोस में सभी के यहां हैं लडक़े
कन्या नौ कहां से लाऊं ।
मेरी अपनी दो कन्याएं
जब खुद मैंने मरवा डाली ।
फि र भी अब खुद मैं ये सोचूं ,
हां मैं जिमाऊं दुर्गा और काली ।
हास्य के रस्ते चलकर दिल में उतर के क्या खूब फ़रमाया…!
आपने एक गम्भीर विषय को धार्मिक अनुष्ठान के साथ जोड़ कर समाज पर सटीक व्यंग किया है.
बहुत सही आपने कहा है…हास्य के रूप में एक ऐसी कड़वी सच्चाई जो अगर चलती रही तो वंश के वंश खत्म हो जाएंगे….दुर्गा पूजन तो बाद में आएगा…खुद के बच्चे कंवारे रह जाएंगे…यह एक ऐसी विडम्बना है जो सामने नज़र आती है सब को फिर भी हम उसको रोक नहीं रहे हैं….आप बधाई के पातर हैं…बहुत खूबसूरत कटाक्ष….
कन्याओ के महत्व को समझाती अच्छी रचना