अब दुनिया के रंगमंच से
ख़त्म मेरा किरदार करो
अपनी मर्जी से रो पाऊँ
इतना तो उपकार करो
हर टुकड़े को जोड़ रहा हूँ
पर खुद को ही छोड़ रहा हूँ
इस टुकड़े के जुड़ने का भी
प्रबंध किसी प्रकार करो।
सपनों नें नींदे छीनी
और अपनों ने सपने छीने
बरसों की जागी आँखों अब
चिर निद्रा स्वीकार करो।
…देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”
devendra ji bahut sundar
वैराग्य दर्शाती सुन्दर रचना ……
बहुत अच्छा लिखा है आपने….
nice lines……..
क्या अंदाज़ है…बहुत खूब…
बहुत ही बढिया लिखा है आपने
बहुत अच्छे ………देवेंद्र प्रताप !!