आपने कबीर की वाणी ” पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया ना कोय , ढाई आखर प्रेम का पढ़े तो पंडित होए” को बड़े सूंदर ढंग से यह कह कर और अधिक सुंदर कर दिया है की भगवान् की हर रचना के रूप में प्रेम तो हर तरफ बिखरा पड़ा है बस देखने का नज़रिया ठीक करने और ज्ञान चक्षु खोलने की आवश्यकता है.
काजलजी….मेरी किसी भी रचना पर शायद आपकी पहली प्रतिकिर्या है….बहुत बहुत आभार आपका आपको पसंद आयी…छोटी क्यूँ…आपके सुझाव को किर्यान्वित करने हेतु मैं कोशिश करूंगा इस को आगे ले जाने की….आप मेरी और रचनाएं जो इस से बड़ी हैं…उनपे भी अपनी अमूल्य प्रतिकिर्या दीजियेगा…….वैसे मैंने सुना था की स्वादिष्ट व्यंजन थोड़ा ही खाना चाहिए….इस लिए इसको छोटा रखा था…हा हा हा…..बहरहाल जल्दी ही इसको आगे ले जाने की रचना प्रस्तुत करने की कोशिश करूंगा….आप का पुनः बहुत बहुत धन्यवाद……
वाह बब्बू जी …….मृग तृष्णा का भेद चन्द लफ्जो में समझा दिया ………बहुत अच्छे !
सही कहा आपने…मृगतृष्णा…कस्तूरी हमारे भीतर है…हम भागते फिर रहे….आप के आशीर्वाद स्वरूप वचनो का तहेदिल से आभार…..
आपने कबीर की वाणी ” पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया ना कोय , ढाई आखर प्रेम का पढ़े तो पंडित होए” को बड़े सूंदर ढंग से यह कह कर और अधिक सुंदर कर दिया है की भगवान् की हर रचना के रूप में प्रेम तो हर तरफ बिखरा पड़ा है बस देखने का नज़रिया ठीक करने और ज्ञान चक्षु खोलने की आवश्यकता है.
बेहतरीन ……………………….108
आप के आशीर्वाद रुपी वचनों का शुक्रिया शब्दों में नहीं कर सकता……
बहुत ही सुंदर रचना मित्र बब्बू जी, वास्तव में बस नजरिये का दोष है वरना, प्रेम तो सर्वत्र है…….
बहुत बहुत आभार आप का….
बहुत अच्छा लिखा है आपने ।
पर छोटा सा क्यु ?
काजलजी….मेरी किसी भी रचना पर शायद आपकी पहली प्रतिकिर्या है….बहुत बहुत आभार आपका आपको पसंद आयी…छोटी क्यूँ…आपके सुझाव को किर्यान्वित करने हेतु मैं कोशिश करूंगा इस को आगे ले जाने की….आप मेरी और रचनाएं जो इस से बड़ी हैं…उनपे भी अपनी अमूल्य प्रतिकिर्या दीजियेगा…….वैसे मैंने सुना था की स्वादिष्ट व्यंजन थोड़ा ही खाना चाहिए….इस लिए इसको छोटा रखा था…हा हा हा…..बहरहाल जल्दी ही इसको आगे ले जाने की रचना प्रस्तुत करने की कोशिश करूंगा….आप का पुनः बहुत बहुत धन्यवाद……