नई नवेली दुल्हन से सास बोली
बहु तैयार हो जाओ मंदिर चलना है।
जहाँ माता के चरणों में होंगा पूजन
और हमारी तरफ से चुनरी चढ़ना है।।
बहु ने खुद से प्रश्न किया—
जीवनदायिनी है एक मेरी माँ
जिसके दूध का कर्ज चुकाना है।
एक सासु माँ है जिनकी छाव ही
अब से मेरा ठिकाना है।।
एक हमारी धरती माँ है जिससे
उत्त्पन्न अन्न जल सब खाते हैं।
यह कैसे और कौन सी माता है
जिसे पूजने लोग मंदिर में जाते हैं।।
भर मन में जिज्ञासा वह मंदिर आई
जहाँ हो रहा था कोई अनुष्ठान।
गाय का दूध पीते बछड़े की एक मूर्ति
पर बहूँ का झट से गया ध्यान।।
बहूँ बोली सासु माँ से, चलिए आज
इस गाय का दूध निकालते है।
सास ने अपने सिर पर हाथ पिटा
और बोली-अरे पगली कही
पत्थर भी दूध देते है।।
वहाँ एक शेर की मूर्ति थी
बहूँ बोली-माँ आगे मत जाईये
वर्ना शेर खा जायेगा।
सास बुदबुदाई-
पत्थर का शेर किसी को नहीं खाता
यह बहूँ को कौन समझाएगा।।
मेरे बेटे का किस्मत फुट गया
जो यह पागल उसके गले पड़ी।
निर्जीव सजीव का ज्ञान नहीं इसको
यह हम लोगों के मत्थे चढ़ी।।
अंदर एक और शैल मूर्ति थी
कपड़ो और फूलों से सजी हुई।
नारियल चुनरी लोग चढ़ा रहे थे
मूर्ति थी पूरी ढकी हुई।।
सास बोलीं-बहूँ यही माता हैं
इनसे जो मागना है मांग लो।
किसी की मन्नत नहीं रहती अधूरी
अब से तुम जान लो।।
बहूँ ने कहा-सासु माँ
जब पत्थर की गाय दूध नहीं दे सकती है।
और शेर खा नहीं सकता
फिर पत्थर की मूर्ति हमें कैसे
कुछ दे सकती है।।
अगर मुझे कोई दे सकता है तो
माँ, वह हैं खुद आप।
माँ जरा सोचिये-
लोग करोडों का चढ़ावा इन
मूर्तियों पर चढाते है।
और करोड़ो गरीब असहाय सडको
पर ही भूखे ही सो जाते हैं।।
लोग सैकड़ो टन दूध पत्थर की
मुर्तियो पर गिराते है।
और न जाने कितने दूधमुंहे बिना
दूध पिए ही रह जाते है।।
अगर मुर्तियो से यूँही मागते रहे
इनके उपर दूध गिराते रहे।
करोड़ो का चढ़ावा चढाते रहे।।
तो हर तरफ पत्थर की मूर्तियाँ होंगी
कबीर दास ने भी फ़रमाया है
पत्थर पूजे हरि मिले, मै पूजूँ पहाण।
ताके यह चाकि भली, पिस खाए संसार।।
गरीबों की सेवा और माँ बाप की
पूजा ही देती मेवा है।
गांठ बाधकर रख लीजिये
मानव सेवा की सेवा माधव सेवा है।।
✍सुरेन्द्र नाथ सिंह” कुशक्षत्रप”✍
बहुत खूब आपने अंधविश्वास को तोड़ने का प्रयास किया है….भगवान् भावना से प्रसन्न होते…खुद भगवान् के वचन को हम नहीं समझते….बात सिर्फ यह की हम न केवल अपने आगे…समाज के आगे बल्कि भगवान् के आगे भी दिखावा करते हैं…उसकी कही बात की हर इंसान की सेव में मैं बस्ता हूँ भूल जाते हैं…मुझे मशहूर शायर जनाब निदा फ़ाज़ली का एक शेर याद आ गया है…..”घर से मस्जिद है बहुत दूर…चलो यूं कर लें….किसी रोत्ते हुए बच्चे को हसाया जाए”……
बब्बू जी, आपकी इतनी खुबसूरत तारीफ के लिए शब्द नहीं मेरे पास जिससे मै आभार दे पाऊ फिर भी आपके पास जो अच्छे शब्द हो उन्ही को मेरा आभार समझें
…वैसे मै जो समझ पाता हूँ , कलम बद्ध कर देता हूँ…साहित्यिक अलंकार नहीं समझ पाता…
सुरेंद्र जी इस रचना का जो सार है वो काबिले तारीफ है
महती शुक्रिया काजल जी, आपका…..मै भी सीखना चाहता हूँ….अतः कुछ सुझाव हो तो शेयर करें….मुझे अच्छा लगेगा….
सुरेन्द्र नाथ जी आपकी कविता तो वैसे ही कबीले तारीफ़ है ऐसा नहीं की मैंने आपकी कविता पढ़ी नहीं] पढ़ी है तभी बता रहा हू आप तो एक कवि है जिसके शब्दों में तो एक अदभुद जादू है किन्तु मै कोई कवि नहीं हू मै तो आसान से शब्दों का प्रयोग करता हू क्योकि मुझे आप जैसी अच्छी हिंदी शब्दों का प्रयोग करना नहीं आता l मै एक बार फिर इतने अच्छे और सटीक शब्दों के इस्तमाल के लिए आपको मुबारकबाद देता हू l ईष्वर करे आप बहुत आगे जाये l
राजीव गुप्ता जी, मुझे नहीं मालूम की आपने ऐसा क्यों लिखा ……मेरी किसी टिप्पड़ी से ठेस लगी हो तो मन से निकाल दीजिये, मै खुद कवि नहीं हूँ, और आप जो मेरी रचना पढ़ रहे है, बस आप लोगों की दुवाओ का असर है…मै math का टीचर हूँ और असम नागांव से रचना करता हूँ।।।। मेरे अगल बगल हिंदी नहीं बोली जाती फिर भी आप के आशीर्वाद से लिखता हूँ…..आप और हम सभी सिखने की श्रेणी में है….
सुरेन्द्र जी आप गलत समझ रहे है मै आपके लेखन की दिल से तारीफ करता हू आप सच में बहुत अच्छा लिखते है अगर मुझसे कुछ कहने में गलती हो गयी हो तो में दिल से आपसे माफ़ी मांगता हू
राजीव जी, मुझे लगा शायद मुझसे कुछ गलती हो गयी है…..आपने दुबारा प्रतिक्रिया देकर मेरा जो हौसलाफजाई किया है उसके लिए ह्रदय की गहराई से आपका शुक्र गुजार हूँ…….आप बस आशीर्वाद दीजिये…..आप स्नेह बनाये रखिये।।।।।….
सुरेन्द्र आपने रचना में आस्था पर चोट की है जो कि बहुत ही व्यक्तिगत भाव है. किसी भी परंपरा और आस्था को तर्कों और कुतर्कों से सही या गलत ठहराया जा सकता है लेकिन मुझे खेद है कि ऐसा अक्सर कुछ चुनिंदा आस्थाओं के बारे में ही किया जाता है. हर व्यक्ति जानता है कि पत्थर कभी ना तो काटते है ना ही पत्थर दूध देते है लेकिन यहाँ बात श्रद्धा कि है . जिसको जैसे सुख व् संतोष मिलता है मिलने दो.
शिशिर सर आस्था के नाम इन्सान के अंधे हो जाने और अतार्किक रूप से कुछ भी मानने पर यह रचना है, रही बात केवलकेवल चुनिन्दा आस्था के बारे में, तो मै आपका इशारा समझ रहा हूँ पर उसके ससंदर्भ में यही कहूँगा, मुझे पहले अपना घर साफ करना है। शिशिर सर कुछ बाते भले कुछ क्षण के लिए व्यक्तिगत लगे, पर हमे यह भी नहीं भूलना चाहिए की भारत की संत परम्परा इस बात को गौतम बुद्ध के युग से कहती आई है और नानक, कबीर, नामदेव बाबा फरीद जैसे तमाम महापुरूषों ने इस कार्य को आगे बढाया।।
सुरेन्द्र जी मेरा प्यार आपके और आपके लेखन के लिए हमेशा ही रहेगा जिस तरह से आप बच्चों को गणित की शिक्षा देने के साथ साथ समाज अपने शब्दों के माध्यम से समाज की बुराइयों पर से पर्दा उठा रहे है वो काबिले तारीफ है
उर की गहरयियो से आभार राजीव जी…….
बहुत अच्छा लिखा सुरेन्द्र आपने……ये अंध्विश्वास की ही दें है जो झूठ और पाखण्ड को बढ़ावा देते है
समाज के इसके कई उदहारण विधमान है जैसा की कई संत और बाबा तथा अच्छे शिक्षित लोग उनके अनुयायी इसके प्रत्यक्ष प्रमाण है !! ………..हालाकि आस्था और अंधविस्वास दोनों अलग है, जैसा की इतिहास में प्रचलित है की कर्ण ने गुरु द्रोण के द्वारा त्रिस्कार पाने के बावजूद उनकी मिटटी की मूरत को साक्षी मानकर सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन गया था ये उनकी आस्था थी !!
Nivatiya sir, विनम्रता से कहू तो आज आस्था के नाम पर लूटने वाले करोड़ो है जो सिर्फ अपने लिए भोली भाली जनता को मुर्ख बनाते है। गौतम बुद्ध की एक बात उद्ध्ग्रितउद्ध्ग्रित करूँगा
“मै जो कहता हूँ उसे सत्य मत मानों, सत्य उसी को मानो जो तार्किक रूप से सही लगे”
अंत में रचना की सराहना के लिए आपका आभारी हूँ और आशीर्वाद चाहता हूँ……
यथोचित .सुरेन्द्र आपका कथन उचित है …….आस्था के नाम पर लूटने वालो से ज्यादा लुटने वाले तत्पर है…….परिणामस्वरूप अंधविश्वास सदैव फलता फूलता रहा है !! ..मेरे कहने का आशय यही है की इस पर सबके अपने अपने मत और विचार हो सकते है ..जिसका एक खूबसूरत सा उदहारण क्रस्तुत करना चाहूंगा जैसे की एक कर्मशील बालक दिन भर मजदूरी कर पेट भरना पसंद करता है, .दूसरी औेर एक योग्य शिक्षित बालक अच्छे परिणाम के लिए ईश्वर प्रार्थना दान धर्म इत्यादि करता है, यह सबकी अपनी अपनी विचारशीलता पर निर्भर करता है जो कभी सम नहीं हो सकती ………..!!
मेरे विचार से यह कोई वाद-विवाद या आलोचनात्मक मुद्दा नहीं होना चाहिये …एक कवी के नाते अपने विचार बेझिझक प्रस्तुत करना होना चाहिए !!
बहुत बहुत धन्यवाद आपका !!
यथोचित .सुरेन्द्र आपका कथन उचित है …….आस्था के नाम पर लूटने वालो से ज्यादा लुटने वाले तत्पर है…….परिणामस्वरूप अंधविश्वास सदैव फलता फूलता रहा है !! ..मेरे कहने का आशय यही है की इस पर सबके अपने अपने मत और विचार हो सकते है ..जिसका एक खूबसूरत सा उदहारण क्रस्तुत करना चाहूंगा जैसे की एक कर्मशील बालक दिन भर मजदूरी कर पेट भरना पसंद करता है, .दूसरी औेर एक योग्य शिक्षित बालक अच्छे परिणाम के लिए ईश्वर प्रार्थना दान धर्म इत्यादि करता है, यह सबकी अपनी अपनी विचारशीलता पर निर्भर करता है जो कभी सम नहीं हो सकती ………..!!
मेरे विचार से यह कोई वाद-विवाद या आलोचनात्मक मुद्दा नहीं होना चाहिये …एक कवी के नाते अपने विचार बेझिझक प्रस्तुत करना होना चाहिए !!
बहुत बहुत धन्यवाद एवं आपके निर्मम स्नेह का आकांक्षी !!
बहुत बहुत धन्यवाद आपका !!
निकातियाँ जी, मेरे उम्मीद से परे आपने मेरा उत्साह वर्धन किया है, और सच भी यही है की अपनी बेबाकी ही मैंने रखा है.. आगे किसको क्या मानना है यह उसका विवेक जाने…..आपके इस आशीर्वाद पर असमिया में एक बात बोलूँगा
आजि मोई दुगुन खाम!
नाम गलती से अशुद्ध लिखे जाने के लिए क्षमा प्रार्थी
निवातियाँ सर……
अच्छा लेखन सुरेन्द्र जी …………….. आस्था और अंधविश्वास में तो सब के अलग अलग मत हो सकते हैं, कवि कुछ भी लिख सकता है ————– जहां ना पहुंचे रवि वहाँ पहुंचे कवि —– फिर भी ऐसा लिखें जिससे विवाद खड़ा ना हो, थोड़ा संभल कर !!
सर्वजीत जी, आपकी हौसला अफजाई के लिए मुक्त कंठ से आभार …. और आशा करता हूँ, आप आगे भी इसी तरह मेरा मार्गदर्शन करते रहेंगे…
आगे आपने संभल के लिखने को कहाँ है तो मै इसे ध्यान रखूँगा, वैसे मै नास्तिक नहीं हूँ और इश्वर में असीम आस्था है पर अंधविश्वास में नहीं, कोई अन्धविश्वास को आस्था का नाम दे तब भी चलेगा पर जो इसके आधार पर लूट खसोट और दिखावापन है उसको कवि मन कैसे जाने देंगा….