तमाम उम्र का था हिसाब हमारा,
पलो में क्यों मुका (खत्म) गए?
लाखों का बता,
कोड़ियो का दाम क्यों लगा गए?
कहते थे तुम परछाई हमारी,
फिर अंधेरो में क्यों छुपा गए ?
कभी थे हम उनके हर सवाल का जवाब,
बुझारतो में क्यों उलझा गए?
मंगाते थे जो जीत की दुआए हमारी,
मात कैसे हमें दे गए ?
शायद परवरिश में कमी,
या वक्त का था हेर फेर,
जो उम्र भर का दर्द,
“मनी” के दामन में डाल गए |
आज कल बच्चे अपने माँ बाप को बुढ़ापे में अकेला छोड़ देते है या एक घर में होकर भी अजनबी बन जाते है ५९% आदमी और ४५% औरते ओल्ड ऐज होम में रह रहे है जिनकी औलाद होते हुए भी उन्हें बेसहारो की तरह जिंदगी गुजरनी पड़ती है |
हाँ मनी भाई, सही कहाँ आपने, बुजुर्ग माँ पिता की उपेक्षा आज के एकाकी समाज की एक ज्वलंत समस्या हो गयी है…रचना के माध्यम से उनके दुखो का चित्रण करने का काफी हद तक प्रयास किया है आपने….
शुक़रिया सुरिंदर जी आपका |
मनी जी मेरा नाम सुरेन्द्र है, मानता हूँ आपका आशय गलत नहीं होंगा ।।।
मनिंदर जब समाज में नैतिक मूल्य बदल जाते हैं तो फिर रिश्तों की महत्ता भी समाप्त हो जाती है. जब सफलता और सम्मान पाने का पैमाना सत्ता, धन, बाहुबल व् चापलूसी ही ही जाए तो फिर ऐसे समाज में बुजुर्गों की सेवा को उचित स्थान कहाँ से मिलेगा
सही कहा आप ने शिशिर जी
बहुत खूब…..मनी
धन्यवाद आपका निवातियाँ जी,
Behtreennnnnn……
thank you c.m sharma ji