बचपन मे एक बार मै पहुचा
दिल्ली अपने सगे चाचा के पास।
दुआ सलाम हुआ हमारे बीच
पर मैने पाया उन्हे गम्भीर उदास।।
शादी के दस सालों मे एक भी
बच्चा पैदा नही कर पाये थे।
बच्चे की चाहत मे न जाने कितने
गलत सही तरीके अजमाये थे।।
मैने उन्हें समझाया कि काशी मे
एक बार बाबा विश्वनाथ के दर जायें।
समर्पण भाव से मन्नत माँगे
और एक घी की दिया जलायें।।
इस घटना के 15 साल बाद मुझे
फिर से उनके घर जाना हुआ।
जब उनके घर पहुँचा तो मुझसे
बहुत से बच्चों से सामना हुआ।।
घर मे केवल चाची और बच्चे थे,
चाचा जी कहीं नजर नहीं आये।
मैने पुछा- चाची जी यह करिश्मा कैसे
और चाचा कहाँ है भागे पराये।।
चाचीं बोली –बेटा 15 साल पहले
आपने ही तो राह दिखाया था।
आपके कहने पर ही बाबा विश्वनाथ के
दरबार मे उन्होने दीपक जलाया था
उस करिश्माई दीपक के जलते रहने से
हम 15 बच्चों के माँ -बाप हुये हैं।
अब बच्चों का उत्पादन रूक जाये इसलिये
आपके चाचा काशी मे दीपक बुझाने गये है।।
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(यह रचना सिर्फ हसाने के लिये है, किसी के भावना
को ठेस पहुचाना कतई उद्देश्य नही है)
सुरेन्द्र नाथ सिंह “कुशक्षत्रप”
कभी कभी हसना भी जरूरी है…..
हास्य जीवन का महत्वपूर्ण अंग है इसके बिना जीवन नीरस और अधूरा है |
सही फ़रमाया आपने मनी जी..
हास्य भी है और व्यग भी. अति सूंदर सुरेन्द्र
धन्यवाद, बस सब आपकी दुवा है शिशिर सर
हँसते हँसते कट जायें रस्ते ………….. बहुत अच्छे सुरेन्द्र जी !!
हाँ सर्वजीत सिंह जी, जहाँ सभी गमों के डूब रहे हो, वहाँ थोड़ी हसी जरूरी है………
सुन्दर हास्य रचना !
मीना भरद्वाज जी, कोटि कोटि आभार, रचना की सराहना हेतु………
खूबसूरत हास्य व्यंग …….वैसे भी आजकल बाबाओ का धंधा खूब चल निकला है…!!
अति सुंदर सुरेन्द्र आपकी रचनात्मकता तारीफ़ ऐे काबिल है !!
उर की गहराई से आपका अति आभार निवातियाँ जी……बीएस आशीर्वाद बनाये रखें
बहुत खूब…हास्य व्यंग….
सी एम शर्मा उर्फ़ बब्बू जी आपको कोटि कोटि आभार…..