कैसी ये उलझन
सुलझाए न सुलझे,
जो मेरा मन रोए,
सो तेरा मन रोए।
कहते दृग बुझते
क्या बोया,
क्या काटा,
टूटा जो धागा
क्या खोया,
क्या पाया।।
जब-
तेरा -मेरा प्रेम है साझा
है पीड़ा साझी,
धड़कन है साझी
हर साँस है साझी,
फिर बोल प्रिये,
क्यों तू है आधा,
क्यों मैं हूँ आधी।
न तू है सूरज,
न मैं हूँ चंदा,
न भ्रम का फैला
है कोई फंदा,
हम दोनों तो हैं
आजाद परिंदा ।।
तो चल-
ज्यों बहता सलिल
त्यों उड़ते हैं हम,
बह चलते हैं
नए दर्ख के संग।
अलका
बहुत सुन्दर ………….
बहुत धन्यवाद……………….
प्रियंका आपने पति पत्नी के बीच सपनो के टूटने के बाद वास्तविकता के आलोक में एक दुसरेकी अभिव्यक्ति की एवं विश्वासों की आज़ादी के साथ सामंजस्य बिठा नए जीवन की शुरुआत करने की इच्छा को बहुत खूबसूरत शब्द दिए हैं. यदि और कोई अभिप्राय हो तो अवश्य स्पष्ट करें .
बहुत -बहुत धन्यवाद सर…।आपने मेरी रचना के भाव को बहुत खुबसूरती से व्यक्त किया है। पुनः धन्यवाद…….
जब कभी पति पत्नी के बीच कोई समन्वय की कमी नजर आती है तो निःसन्देह दोनों पक्ष अपने को एक बार अतीत मे झाँक गलती खोजने की कोशिश करते है। अगर दोनों एक दुसरे के समर्पण को समझ जीवन की पहियाँ आगे ले जाते है तभी उनका यह समर्पण सार्थक होता है।।।। अलका जी अच्छी रचना।….. आप भी हम लोगों की रचनाओं पर अपने आलोचनात्मक टिप्पणी करतीं तो हमें भी अच्छा लगता…..
बहुत -बहुत धन्यवाद आपका…..। मैं आपकी सुझाव को ह्रदय से स्वीकारती हूँ ।
बेहतरीन रचना अलका जी !
बहुत -बहुत धन्यवाद मैम………
जंहा समर्पण का भाव हो वहां स्वत: सामंजस्य बैठ जाता है …..अक्सर एक दूसरे को समझने में हुई भूल से हमे ऐसी परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है …..जिसे आपने शब्दों के माध्यम से निवारण सहित बखूबी पेश किया है ।
बहुत -बहुत धन्यवाद सर……….