अनजान लगता है
कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय
अब इन राहो पर सफ़र आसान लगता है
जो गुमनाम है कही वही पहचान लगता है||
जिस शहर मे तुम्हारे साथ उम्रे गुज़ारी थी
कुछ दिन से मुझको ये अनजान लगता है||
कपड़ो से दूर से उसकी अमीरी झलकती है
मगर चेहरे से वो भी बड़ा परेशान लगता है||
मुझको देख कर भी तू अनदेखा मत कर
तेरा मुस्करा देना भी अब एहसान लगता है||
मिलते है घर मे हम सब होली दीवाली पर
सगा भाई भी मुझको अब मेहमान लगता है||
जिंदा थी तो कभी माँ का हाल ना पूछा
तस्वीर मे अब चेहरा उसे भगवान लगता है||
बहुत सुन्दर…खूबसूरत भाव….
बहुत बहुत आभार आपकी हिम्मत आफजाई का
अति सूंदर समसामयिक रचना
बहुत बहुत धन्यवाद शिशिर जी
व्यवहारिक यथार्थ को समेटे हुए अच्छी रचना …….!!
बहुत बहुत धन्यवाद आपका
कोई शक़ नहीं की आज की इस भाग दौड़ में इंसान खुद को भी अंजान लगता है,
बहुत अच्छे
शुक्रिया गायत्री जी आपका
अति सुंदर……………
शुक्रिया मनोज जी आपका