वक़्त की तरह
आदमी चलता रहता है
रुकता नहीं है
कुछ मुकाम उसने बनाए हैं
कुछ मुकाम उसकी खातिर बने हैं
कुछ रास्ते उसने बनाए हैं
कुछ रास्ते उसकी खातिर बने हैं
रिश्तों की दहलीजों पर
अपनों की उम्मीदों पर
आदमी दौड़ता है
एक नयी लड़ाई हर रोज़ लड़ता है
उलझनों से लड़ता हुआ
कभी गिरता है
कभी संभलता है
चलना उसकी फितरत है
हिम्मत ही उसकी शोहरत है
इक ख़्वाब लिए आँखों में
मुश्किलों से भरी रहगुज़र में
ख़ामोश हुए इक अनजान सफ़र में
आदमी ने बनना है कभी
कभी तो मिटते जाना है
साँसों की होड़ में उसने आख़िर
चलना है
बस चलते ही जाना है।
यही तो है ज़िन्दगी….धुप छाँव का खेल…बहुत खूब….
महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब साहिब का एक शेर है….बाजीचा-ऐ-अतफाल है दुनिया मेरे आगे…होता है यहाँ रोज़ तमाशा मेरे आगे….यह दुनिया एक खेल का मैदान है….यहाँ रोज़ मेरे आगे एक नया खेल होता है….
गालिब साहिब का साहित्य खंगालने का मतलब ही है, ज़िन्दगी के पेचों में पड़कर गहराई के गोते लगाना। आपके इस शेर से मुझे भी याद आया, ” हज़ारो ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले। बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले…”
बहुत खुबसूरत रचना…. जीवन, जंग मंजिल और मुकाम…. इन्सान कभी इनके पीछे और कभी इनके आगे…