मुझे मिला एक लावारिस बच्चा
सोचता हूँ उसका क्या नाम धरु।
किस जाति-धर्म का खून है,
पहचानने के लिए क्या काम करू।
अपने बच्चे जैसा पाल पोश कर
अगर भर दू उसमे अपना संस्कार।
तो क्या मिल पायेगा समाज में
उसको उसका वाजिब अधिकार।
एक पल के लिए माना मै हिन्दू हूँ,
पर खुदानाख्स्ता वह है मुसलमान।
तब संस्कारो की आड़ में बुत पूजा से
क्यों करू उसका अपमान।
और अगर मै हुआ मुस्लिम और वह
हिन्दू तो कैसे मै न्याय करू।
पांचो वक्त नमाज पढ़े वो, ऐसा गुण
उसके अंदर क्यों इजाद करू।
अगर मै हूँ अगड़ी जाति का, और
वो दलित, तो कैसे उसका मान करू।
कैसे उसको आरक्षण दिलवाकर,
उसका जाति का सम्मान करू।
अगर मै हूँ दलित और वह अगड़ी
जाति का, तो कैसे मै इमान धरु।
क्यों उसको भी आरक्षण दिलवाकर
एक दलित का हक मारू।
मानवता तो हम कब के भुले,
आज मजहब हमारी पहचान है।
जाति हमारी इज्जत है और
बिन जाति नहीं कोई सम्मान है।
निवारण करिए मेरे प्रश्न का
जिससे, उसको न आये कोई आंच।
क्या दुनियाँ में ऐसी कोई लैब बनी है
जहाँ होती जाति-मजहब की जाँच।
क्योंकि इंसानियत तो गिरवी रखी है
चंद जाति-धर्म के ठेकेदारों ने।
रिश्तों के बीच दीवार खड़ी कर दी है,
खुद अपने ही लंगोटिया यारों ने।
दौर कोई और था जब मिलकर होली
और दिवाली मनाया करते थे।
हमारी पटाखे उनके होते और हम
भी खुसी-खुसी ईदी खाया करते थे।
कही बजते थे शंख, घंटा घरियाल,
तो कही से अजान निकलता था।
प्यार मोहब्बत तो था ही, दिलों से
आदर सम्मान निकलता था।
सुरेन्द्र नाथ सिंह “कुशक्षत्रप”
जाति धर्म के ऊपर परोक्ष रूप से कटाक्ष करती मेरी रचना।।।। इंसानियत एक है ।।
सुरेंद्र आंतरिक द्वन्द का सुंदर चित्रण.
शिशिर मधुकर जी आपका इस खुबसूरत प्रतिक्रिया के लिए आभार।। वास्तव में इन्सान ऐसे मकड़ जाल में फसा है जिसमे से निकलना दुर्लभ हो गया है।। हमारी पहचान इंसानियत होनी चाहिए थी, पर नहीं, हम हिन्दू मुशालमन अगड़ी और पिछाड़ी से पहचाने जाने लगे।।।
इस रचना के माध्यम से निजी स्वार्थ एवंम खुद को सर्वोपरि साबित करने के लिए मानवीय मानसिकता के दुरूपयोग से उत्त्पन्न सामाजिक विषमताओं के मर्म को दर्शाकर ह्रदय की वेदना व अंतर्दवन्द का नायाब नमूना पेश किया है आपने …बहुत अच्छे सुरेन्द्र
निवातियाँ जी आभार, रचना को पढकर हमे आशीर्वाद देने के लिए।। आप आशीर्वाद बनाये रखे ताकि कुछ और सामाजिक विषयों पर मै अपनी रचनाये देने में कामयाब हो सकू।।।।
आपकी दुविधा में भी समाज के प्रति कटाक्ष है जो मानवता के मूल्यों को नहीं पहचानता …………………………. बहुत अच्छे सुरेन्द्र जी !!
सर्वजीत जी, आपकी इस खुबसूरत प्रतिक्रिया और आशीर्वाद के लिए कोटि कोटि धन्यवाद।।।
बहुत ही बढ़िया कटाक्ष है….
शायद लखनऊ का एक किस्सा भी है की एक चाय वाले ने एक मुस्लिम बच्चे की परवरिश उसके मजहब के हिसाब से की…बाद में जब वो बड़ा हो गया तो उसके माँ बाप आ गए….केस चला Hon’ble High Court में तो बच्चे ने भी चाय वाले के साथ रहना पसंद किया…मैं केस का नाम याद नहीं कर पा रहा हूँ…शायद केस वो अब Hon’ble Supreme Court mein है…..ऐसे उधारण बहुत इक्का दुक्का ही हैं….और इनकी बदौलत ही इंसानियत ज़िंदा है…वर्ना जो आप ने लिखा वो ही दुविधा सब की है….और इतना सुन्दर परिपक्व कटाक्ष सुधार लाने में मील पत्थर साबित हो….दुआ है मेरी….बहुत बहुत सुन्दर…अति सुन्दर भाव….जय हो….
वो चाय वाला हिन्दू था धर्म से….
मेरा तो सिर्फ इतना मानना है चन्द्र मोहन शर्मा जी की हम सब इन्सान के पुत्र है न की हिन्दू मुश्ल्मान के। व्यक्तिगत किसी का कोई धर्म हो, इंसानियत जीवित रहनी चाहिए।। सभी संत पैगम्बर ने यही बताया है।। पर कुछ चुनिन्दा लोगों ने उसकी ब्याख्या अपने ढंग से कर रखी है।। हम चुकि समाज के अंग है और जब समाज प्रभावित होता है, हम भी अछूता नहीं रह पाते।।
आपकी शुभकामना के लिए मै बहुत आभारी हूँ।।
आपका उत्साहवर्धन मुझे नयी उर्जा प्रदान करेगा।
उपर की कुछ संदेशो में मेरा नाम कुछ तकनिकी कारणों से अस्पष्ट है।। आप सभी सुधी जानो को मुझे आशीर्वाद देने हेतु मेरी कोटि कोटि आभार