एक सितमगर से दिल लगा बैठे…
हसीन से झूठ पे ऐतबार कर बैठे….
तारे गिनने पे लगा दिया हमको…
हिसाब कमज़ोर था पढ़ने आ बैठे….
हकीम को नब्ज़ क्या दिखाई हमने…
वो नब्ज़ ही हमारी गुम कर बैठे….
वादा उनका वादा ही रहा तो क्या…….
हम अपना बादा ले बैठे…
इस शान से उठी थी पालकी उनकी…
ग़ुरबत अपनी को हम शाबाशी दे बैठे…
सुना था कि उनकी झील सी आँखों में हम बसते हैं…
तैराक थे नहीं…ढूँढ़ने जो निकले तो खुद को ही डुबो बैठे…
पता नहीं क्यूँ कहते हैं सब के “बब्बू” इश्क़ में मर बैठा…
जान जिगर तो उनका था..फिर हम ऐसा क्या कर बैठे…
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/सी.एम.शर्मा (बब्बू)
यथार्थ प्रेम की मिसाल इससे बढ़कर और नहीं हो सकती …………बहुत उम्दा !!
आप का हर शब्द प्रसाद सवरूप….बहुत बहुत आभार आप का…
मन की कसक महसूस Ho रही है रचना में. अति सुंदर
आप की प्रतिकिर्या का हार्दिक अभिनन्दन….