ईश्वर के अर्धनारीश्वर रूप को समक्ष रखते हुए. नारी के लिए पुरुष के मन के कुछ भावों को मैंने शब्द देने की कोशिश की है. मेरी अर्धांगिनी को समर्पित.
पारस को छूने से ज्यों लोहा कंचन बन जाता है
तेरे सीने से लगकर तन मन मेरा खिल जाता हैं
जब जब तू मेरे चेहरे को हाथों में अपने भरती है
तेरी आँखों की मय मुझको मदहोश सा करती है
तेरी सांसों की गर्मी जब मेरे माथे से टकराती हैं
मेरी सारी शक्ति तब तेरे कदमो में झुक जाती है
तेरे गेसू जलते तन पर कुछ ऐसा जादू करते हैं
जैसे शोलों पर नाजुक से हरसिंगार बिखरते हैं
प्रेम अगर ना हो जीवन में हर शै यहाँ अधूरी है
असली दीवानों के दामन में होती जन्नत पूरी है
शिशिर मधुकर
सत्य कहा आपने शिशिर जी .. नारी ही पुरुष की प्रेरणास्रोत है………….प्रेम की शक्ति एव शीतल स्वरुप का स्मरण कराती खूबसूरत रचना ……..!!
आपकी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद निवातियाँ जी
बहुत सही कहा आपने…प्रेम के बिना सब कुछ अधूरा ही है….अत्ति उत्तम….
रचना पढ़ने और पसंद करने के लिए धन्यवाद बब्बू जी
मोहब्बत करने वाला पति और प्रेरणा स्त्रोत अर्धांगिनी हो तो दिल की गहराईओं से कविता निकलती है ………………….. लाजवाब मधुकर जी !!
आत्मीयता भरी प्रतिक्रिया के लिए आपका शुक्रिया सर्वजीत
बहतरीन ………….……
Thank you very much Manoj