एक दिन मैँ जा रहा था सडक पे,
सडक पे पडा था जनाजा किसी का,
जिसे घूर रहे थे कुत्ते वहीँ पे,
जाने वो बदनसीब था कौन सा,
जिसे मरना भी था तो सडक पे ।
उसे मैँ क्या कहूँ, कहूँ भिखारी
या फिर कहूँ राहगीर,
मगर था तो वो इंसान ही ।
मेरे अंदर भी इंसानियत जागी और
मैँने उठा लिया था पत्थर वहीँ पे ।
लगा निशाना कुत्तोँ को चाहा मारना,
मगर एक ने रोक दिया कहा –
भई ये दुनिया है जालिमोँ की,
कहीँ पुलिस केस ना हो जाए
सो चुपचाप निकल लो यहाँ से ।
इंसानियत मर गई मेरी अब तो,
खुद को कोसता रहा मैँ अपनी बेबसी पे ।
फिर जब मैँ जाने को हुआ ।
तभी आ रही थी एक मंडली कहीँ से ।
पता चला मंडली मेँ थी एक नेता की अर्थी ।
जो जा रही थी अंतिम संस्कार मेँ ।
क्या फूल लगे थे उसकी अर्थी मेँ ।
शमा रोशन हुआ जा रहा था गुलजार मेँ ।
तब मुझे हुआ ये एहसास
की ये दुनिया है दीन दुखियारोँ की ,
लेकिन है तो शौक से भरे पाखंडी मस्तानोँ की ।।
बहुत बहुत अच्छी रचना।। बड़ी संजीदगी से दोनों पक्षों को उकेरा है आपने
की ये दुनिया है दीन दुखियारोँ की ,
लेकिन है तो शौक से भरे पाखंडी मस्तानोँ की ।।
या कि:
की ये दुनिया नहीं है दीन दुखियारोँ की ,
है तो बस शौक से भरे पाखंडी मस्तानोँ की ।।
ctirkey जी…मुझे ऐसा लग रहा की यह अंतिम पंक्तिया सही नहीं…हो सकता टाइपिंग में कुछ गलत हो गया…जो मैंने लिखा क्या आप वो लिखना चाहते थे या कुछ और….क्षमा करियेगा मैंने गलत समझा हो तो. …
कटाक्ष और परिसिथिओं में फंसे इंसान की दशा का चित्रण अच्छा है….बहुत खूब…
धन्यवाद सुरेन्द्र जी….!
धन्यवाद babucm जी….!
और वो अन्तिम पंक्तियां मैने वही लिखी थी
पर आपके सुधार करने के पश्चात वो पंक्तियां और बेहतर प्रतीत हो रही हैं