एक नयन नीली,
एक आँचल गीली,
एक होठ रसीली,
एक कंठो की पीड़ा,
पर बेहद सुरीली ।
एक निर्झर ऊँची,
चट्टानों को छूती,
है बहती जाती
एक मोह में अटकी,
वापसी को तरसी,
पर राह भूली-बिसरी।।
एक नभ है छितरी,
मेघो को बुनती,
जो पल-पल बनती,
जो पल-पल मिटती,
सुख-दुख में लिपटी,
सुख-दुख को रचती ।
एक साँझ है धुँधली,
जाने को आतुर,
एक रात है गहरी,
आने को व्याकुल,
एक दिन है फैला,
सफेद उजाला,
पर थोड़ा मैला।।
एक मन है उलझा,
उलझन न खुलता,
धुँध छाता जाता,
पग बढ़ता जाता,
मन डर-डर घबराता ।
अलका
प्रकृति के स्वरुप का खूबसूरत चित्रण !!
धन्यवाद सर……….
मानव मन की द्वंद को दर्शाती सुंदर रचना
मेरी रचना के भाव समझने के लिए बहुत धन्यवाद……….
अतीव सुंदर रचना
आपका धन्यवाद…………
खूबसूरत रचना अलका जी…
आपका बहुत धन्यवाद…………
प्रियंका जहाँ तक मैं समझ पा रहा हूँ पहले तीन पैरा में आपने चौथे पैरा में बताए सांझ, रात व दिन को मानव भावनाओं के साथ जोड़ा है व फिर सारी कशमकशों को जीवन उलझन के रूप में देखा है. यदि कोई और अभिप्राय है तो बताए.
बहुत -बहुत धन्यवाद सर। आपने मेरे भावों को बिल्कुल सही समझा है । सुख-दुख और सही-गलत की कशमकश में फँसी मानव भावनाओं को मैंने इस रचना में उजागर करने का प्रयास किया है।
बहुत ही सुन्दर…जय हो….
आपका बहुत -बहुत धन्यवाद………
बहुत सुन्दर रचना अलका जी !!
बहुत -बहुत धन्यवाद मैम।
आपका लिखा चौथा भाग बहुत गहरा है। उस पर अलग से मेरा ध्यान पता नहीं क्यूँ गया!