बहुत सो लिए घरों में कर बंद आखें अब हुँकार चाहिए।
सिहर पड़े अरि, काप उठे जर्रा जर्रा ऐसी फुफकार चाहिए।
तेरी शहादत पर पत्थर से निकलनी लहू की धार चाहिए।
तूफानों के बीच कश्ती लगे किनारे, ऐसा पतवार चाहिए।
कब तक रहोंगे बने कमेरा, खुद तुम्हारी सरकार चाहिए।
बहुत झेला औरों का शासन, और नहीं इंतजार चाहिए।
जो अभी है दबे कुचले उनको वाजिब अधिकार चाहिए।
सामाजिक विषमता को तोड़ सके, ऐसी कोई वार चाहिए।
सबकों मिले सम्मान से रोटी, न कोई बेरोजगार चाहिए।
शिक्षित हो हर लड़का लड़की, शिक्षा का संचार चाहिए।
बुजुर्गो को इज्जत देने वाली बालपन का संस्कार चाहिए।
मानव को मानव से जोड़े , ऐसा मानवीय त्यौहार चाहिए।
धधकते नफरत के शोलों को, मोहब्बत का बौछार चाहिए।
जाति धर्म मंदिर मस्जिद की ढहनी अब दीवार चाहिए।
पल पल घर बैठे फतवे देने वालों का तिरस्कार चाहिए।
मजहब में जो अंधे है, का सामाजिक बहिष्कार चाहिए।
जो हो गया वीरान गुलिस्ता, अपनापन से गुलजार चाहिए।
अपना दीपक खुद बनो, और कितने झूठे अवतार चाहिए।
“कुशक्षत्रप” फ़साना कहता है, बनना निज तारणहार चाहिए।
सुरेन्द्र नाथ सिंह “कुशक्षत्रप”
Nice write………………
मधुकर जी आपका धन्यवाद पर सर मै आपसे कुछ और अपेक्षा करता हूँ
ओजपूर्ण रचना ……..बहुत अच्छे !!
डी के निवातियाँ सर आपका आभार।।
हर पहलु में कुरीतिओं को मिटाने का आह्वान करती अति सुंदर रचना.
babucm जी सहृदय से आभार
बहुत बहुत बधाई……बहुत सुन्दर
धन्यवाद और हृदय की गहराई से आभार।। आशीर्वाद की कामना हेतु करबद्ध