अम्मा री!
इस बार न भेज
मुझे ससुराल,
इस बार न जाना
मुझे ससुराल ।
न भाता मुझे वो आँगन अम्मा,
न भाता मुझे वहाँ का सावन,
जिसको सौंप दिया
मैंने अपना यौवन,
न भाता मुझे वो साजन!
न भाता मुझे वो साजन!!
चुप क्यों है री अम्मा
कुछ तो बोल,
अपने अधरों को
थोड़ा तो खोल।
क्या दान के मंत्रो से
हो गई मैं इतनी पराई,
की तुझे नहीं दिखती
मेरी जली हुई कलाई??
क्या तुझे सच में नहीं दिखते
मेरे सूजे हुए पाँव,
और पूरे बदन पर फैले
खून जमें घाव??
मेरे कटे हुए अधर,
मेरे छिले हुए कमर,
और मेरे हृदय का
गहरा डर??
नहीं अम्मा,
इस बार तो
अब मैं न जाऊँगी,
ठन कर आईं हूँ,
अब मार मैं न खाऊँगी।।
पर अम्मा,
तेरे होठों पर
ये कैसा सन्नाटा,
क्यों हो गई
तेरी आँखें सूनी,
आखिर किसके डर से
तेरी ममता हो गई
इतनी बौनी।
अम्मा री,
अपने आँचल को
तुम यूँ न समेटो,
लाडो कह कर
मुझ से लिपट लो।
फूट-फूट कर तुम भी
मेरे संग रो लो,
मेरे जख्मों को
जरा़ सा तो सहला लो,
पहले की भाँति
मुझको गले लगा लो,
अम्मा, समेट कर अपनी
फटी आँचल को,
तुम अपना मुख
यूँ न फेरो,
यूँ न फेरो।।
कह दो अम्मा,
तुम बाबुल से,
कह दो
भईया-भाभी से,
इस आँगन की
मैं भी परछाई हूँ,
इस आँगन में हीं जन्मीं हूँ,
इस आँगन में हीं मिट जाऊँगी,
लेकिन उस आँगन
अब मैं न जाऊँगी,
अब मार मैं न खाऊँगी!!
अब मार मैं न खाऊँगी!!
अलका
घरेलू हिंसा को प्रदर्शित करती मार्मिक रचना……. बहुत अच्छा
धन्यवाद…………….
प्रियंका सुंदर रचना.हमारे देश में स्त्रियों को अभी असली आजादी पानी हैं जिससे वो समाज के बेमतलब के बंधनों व कुरीतियों की शिकार न बने
धन्यवाद……………
नारी उत्पीड़न के सामाजिक परिदृश्य का भावनात्मक सजीव चित्रण को अत्यन्त खूबसूरत !!
धन्यवाद…………..