जब नींव उखड़ने लगता है,
विश्वास सिमटने लगता है,
एक मात्र हवा के झोकें से,
रिश्ता दरकने लगता है ।
गलत सही के चक्कर में
मन भ्रम में डूबा जाता है,
अच्छे -बुरे कर्म देख,
विधाता करम को लिखता जाता है ।।
कोरे- कोरे कागज़ पर,
हर एक हवा की आहट पर,
चलता जाता है उसका कलम,
देखकर दुनिया का आलम,
हर छन गहराता है
घनघोर तम।
अम्बर के एक कोने से,
बादलों की खिड़की से,
झाँक -झाँक वो देख रहा,
अहं कैसे हावी हो रहा ।।
जाने क्यों आँखें देख रहीं हैं
खोटे- खोटे सपने,
जाने किस धुँध के सामने
खड़े हो गए हैं अपने।
जाने कैसे इस मान- सम्मान ने
बदला अपना तान,
जाने कैसे ये स्वाभिमान
बन गया अभिमान ।।
अपने संग हमने
कुछ नहीं है लाया
फिर जाने कैसे
अहं में सिमट गई है
हमारी छाया।
हमारी साया।।
एक समय –
जब बादल की
एक खिड़की टूटेगी,
बिजली की तलवार खड़केगी,
तब हमारी साया सिमटेगी,
और काया धरा में मिल मिटेगी।
एक दिन तो
खत्म होना हीं है तन को,
तो क्यों भ्रमित
करते हो मन को।।
हटा दो छाता
धुँध का परदा,
मिटा दो वो लकीरें
जो मन को
मन से है खींचता ।
छूटते हुए हाथों को
फिर से थाम लो,
खामोश होती दृगो को
फिर से पुकार लो,
अहं को तोड़ दो,
मन को जोड़ लो,
जिंदगी को जी लो।
जिंदगी को जी लो।।
. अलका
सुंदर रचना……बहुत अच्छा
धन्यवाद………………
अति सुन्दर ………….!
धन्यवाद…………….
प्रियंका अहम पर काबू पाना ही तो असली तपस्या है. सूंदर अभिव्यक्ति
धन्यवाद…………….