खून के रिश्तों में अब खून नही दिखता।
माँ-बाप की आँखों में वो सुकून नही दिखता।।
बदली है वक़्त की फ़ितरत भी कुछ ऐसी।
आशिक़ की आँखों में वो फितूर नही दिखता।।
सरताज बना बैठा है वो कौन से गुमाँ में।
शहर में सिवा ख़ुद के कोई मशहूर नहीं दिखता।।
मिलावट भी अब कुछ हो गयी पूरब की हवा में।
बुज़ुर्गों के लिहाज़ का यहां दस्तूर नही दिखता।।
खुद के लिए भी वक़्त अब है नहीं ‘आलेख’।
शहर में कोई शख़्स अब फ़िज़ूल नही दिखता।।
— अमिताभ ‘आलेख’
सत्य कहा आपने …..इंसान कितना मशगूल और स्वार्थी हो गया है कि आज घर में लेटे हुए व्यक्ति के पास भी वक़्त नहीं है ………!!
आभार धर्मेन्द्र जी।
अत्यन्त खूबसूरत सत्यपरक रचना
बहुत बहुत शुक्रिया शिशिर जी।