दीदार-ए-यार-ए-ख्वाब की हरसू है आरज़ू ।
ज़िन्दगी स्याह रात है ऐ ख्वाब कहाँ है तू ।।
ज़िंदगी में अब लगे है साँसें बुझी बुझी ।
थोड़ी जान तो अब डाल दे मेरी जाँ कहाँ है तू ।।
ऐ ज़िन्दगी ! अब और इंतज़ार नही होता ।
मेरी तक़दीर भी लिख दे ऐ ख़ुदा कहाँ है तू ।।
हर शख़्स ओढ़े घूम रहा ख़ुदगर्ज़ी का लिबास ।
किस दिल में तुझे ढूँढू ऐ वतन कहाँ है तू ।।
कभी ‘गुलज़ार’ बनकर तो कभी बनकर ‘अमीर’ ।
ढूँढा बहुत जिसे मेरी वो ग़ज़ल कहाँ है तू ।।
— अमिताभ आलेख
लाजबाब अमिताभ जी !
धन्यवाद धर्मेन्द्र जी।
अमिताभ यह रचना तुम्हारे स्तर पर नहीं आ पाई है. जैसे पहले दो शेरो में ख्वाब और जान रिपीट होने से फ्लो नहीं आ रहा है. रचना सुधार माँगती है.
शिशिर जी आपकी आलोचना का तहे दिल से स्वागत है। मैंने काफ़ी गौर किया तो पाया की यार के दीदार के ख़्वाब की ही तो आरज़ू है लेकिन ज़िन्दगी तो जैसे एक काली अंधियारी रात हो गयी है लेकिन ख़्वाब आते ही नहीं यार के। इस दृष्टि से देखें तो परिवर्तन की आवश्यकता नहीं होगी।
इसी प्रकार दुसरे शेर में यही तो मज़ा है की जान के दो अर्थ हैं। एक तो जिस्म की जान और दूसरी जान यानी मेहबूब को कहा गया है।
आपकी आलोचना से बहुत कुछ सीखने को मिल जाता है। इसी प्रकार पग प्रदर्शित करते रहिएगा।
अनेक आभार,
आलेख ।