ओहदों को नापो मत
तौलो भी मत
पेशा चाहे जो कोई हो
ज़रा ज़रा सा फ़र्क मिलेगा
कुछ कुर्सियों का
काग़ज़ी हिसाबों का
कुछ दहर-ए-शौक़ की मेहरबानी है
कुछ नसीबों की चाल पुरानी है
ये भी तो हो सकता है
हर सच इसके पीछे झूठा हो
ये भी होगा
जिसकी मंज़िल छूट गयी
किसी ख़ातिर वो भी टूटा हो
ओहदे का हवाला देने वालों
फ़ुरसत मिले
इक काम करना
ख़ुद के ज़मीर का दामन पकड़े
नीयत-ओ-इमां पर फ़ैसला करना
औ इतनी सी कोशिश भी करना
अपने ख़ुदा को गवाह रख कर
दिल की हर गिरह थाम कर
आईनेे से आँख मिला के कहना
मैं अपनी नज़र में अभी गिरा नहीं हूँ
मेरा ओहदा आज भी सबसे जुदा है।
आभा ‘आसिम’
अत्यन्त खूबसूरत रचना. भावनाओं में बहुत पैनापन और गहराई है.
मैं अपनी नज़र में अभी गिरा नहीं हूँ. वाह. बहुत खूब.
Dhnyawaad shriman