चलते चलते, उठते बैठते, यूं ही इधर उधर
मिल जाता है अक्सर गॉड पार्टिकल
वो बीज बन भूमि में जाता, सूर्य बन रश्मि छिटकाता
वायु बन लहराता जंगल, बरसता बन बादल
गॉड पार्टिकल
नदियों की कलकल, सागर की गहराई
गगन का विस्तार, पर्वत की ऊँचाई
पक्षियों का कलरव, धरती का सम्बल
देता है अनुभव, गॉड पार्टिकल
बगिया में मिलता फूल बन के , राह में मिलता धूल बन के
कभी बन कर मिलता पत्थर
और दे जाता फल
गॉड पार्टिकल
अहल्या के लिए ही राम नहीं, राम हेतु केवट
सुदामा के लिए ही श्याम नहीं, कृष्ण हेतु चावल
गंगा ही नहीं मानव के लिए, भगीरथ भी बन करता तप
गॉड पार्टिकल
हो जाए विश्वास तो, होगा ये अहसास
बस साथ साथ
पास पास, रहता है प्रतिपल
गॉड पार्टिकल
चलते चलते, उठते बैठते, यूं ही इधर उधर
मिल जाता है अक्सर गॉड पार्टिकल
बहोत अच्छे……
thanks a lot………………..
गिरिजा जी, विज्ञानं की आधुनिक खोज जिस से कि ब्रह्माण्ड के वर्तमान स्वरुप में आने का अध्ययन किया जा सकता है के माध्यम से आपने उस खोज से होने वाले ख़ुशी के अनुभव को रोज़ प्रकृति के माध्यम से होने वाले अनुभवों से बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया है. अति सूंदर.
my poem can reach you. thanks a lot.
अत्यन्त लाजबाब प्रस्तुति गिरिजा जी ! ………रचना जितनी खूबसूरत एव तर्क संगत है उसका सार शिशिर जी ने बखूबी परिभाषित कर दिया है !!
thanks for appreciation and motivation.