सबके मूल मे है शिक्षा,जो बदल देती मानव प्रक्रिति
आज की शिक्षण पधति हमे ऐसा धकेला
कि बडे बुजुरग हो गये अकेला
फैसन बद्ला,सोच बद्ला,
रिस्ते ट्टे,बिख्ररे परिवार
कोइ न कहे सादा जीवन उच् विचार
नही रहा अब कोइ शिश्टाचार
शिक्षण सन्स्थीओ मे न रहा अनूशासन
कितने बने विदया का आलय पर न होती बाते चरित्र निर्माण की
बाते होती केवल आरक्षण और सरक्षण की
विद्यार्थी हो गये मस्त
शिक्षक बना गुरु से दोस्त
दोनो मे नही ताल मेल, ऊलटपूराण का यह खेल’
पिता बन गया पा,माता बन गयी मम
पा नाचे, मम नाचे, साथ मे नाचे बच्चे
पर्दे मे नाचे बेपर्दा, सब कुच्च रहता खुला खुला
सभ्यता सन्स्क्रिती को दे भूला
कैसी शिक्षा आज की जो मागॅ रही समीक्षा
बहुत अच्छा व्यंग………..
धन्यबाद रजनीशजी
PRADIP JI, THIS POEM IS EXCEELENT , HEART TOUCHING AND MOREOVER VERY MEANINGFUL.
LOT OF THANKS FOR THE CREATION. REGARDS. HARIOM UPADHYAY.
धन्यबाद उपाध्याय जी ! दूखी मन का भाव है यह !