जब बादल झुके जमीं पर,
तब इंद्रधनुष के रंग गिरे वहीं कहीं पर।
तभी आया हवा का एक झोका
भला उसके पथ को किसने रोका
रंग को लेकर अपने संग
चल परा वो बाबुल के आँगन।।
रंग से रंग गया सारा आँगन,
रंग की खुशबू से महका
फिर से उपवन।
सूने आँगन को उसने आबाद किया
बन कर बेटी
खामोशी को उसने आवाज दिया ।।
घर में जब गूँजी
बेटी की आवाज,
तब पिता को हुआ
बहुत हीं नाज।
उसकी छोटी -छोटी उँगलियों में डाल कर हाथ,
उसके नन्हें -नन्हें कदमों के संग चल कर,
दिया उसका साथ ।।
थाम कर माँ का आँचल
काँटों से बची वो हर पल ।
सिमट कर उसके लाडों में
बन कर उसकी हीं परछाई
बढ़ती गई वो पल -पल।।
पर एक दिन
जाने कैसा बहा समीर
बाबुल का मन हुआ अधीर,
लाकर कहीं से
लगन की मेंहदी,
अपनी खुशियाँ
उन्होंने खुद हीं रौंदी।
जब बेटी की हुई बिदाई
तब माँ- बाप की
आँखें भर आई ।
देखकर छूटता आँगन का रंग
पल-पल टूटा उनका मन।।
वो सोच रहे थे खड़े,
कि अब कौन मनाएगा उसे
जब वो अपनी हठ पर अड़े ।
अब कैसे पूरी होगी उसकी जिद्द
क्या उसकी अनसुलझी बातों को भी
कोई कर पाएगा सिद्ध ।।
लाडो में पली बेटी,
क्या लाडो में पाली जाएगी।
जरा सी बातों पर
नीर बहाने वाले आँखों को
क्या कोई वहाँ भी पोछने आएगा ।।
उसके मन की वेदना को
क्या कोई वहाँ भी समझ पाएगा।
उसके दुखों को दुख मान
क्या कोई वहाँ भी
उसे समेट पाएगा।।
इन सारे प्रशनों के साथ वे
खड़े लड़ रहे थे,
विछोह और संशय,
आँसू बन निरंतर बह रहे थे ।
बाबुल ने अपना फर्ज निभाया,
बेटी को तो होना था पराया ।।
पर माँ के आँचल का रंग रह गया था अधूरा,
अब उनकी अधूरी बातों को
कौन करता पूरा।
बेटी तो बन गई एक अलग परछाई,
जब बाबुल के आँगन से हुई उसकी जुदाई।।
. अलका
Nicely expressed
धन्यवाद………..
सूंदर अभिव्यक्ति …………..
धन्यवाद ……..
बहुत ही सुन्दर रचना अल्का जी ..
धन्यवाद……….