हे प्रभु तेरी लीला भी अपरंपार है
कहीं तेरी कृपा की एक बूंद भी नहीं
कहीं तेरी कृपा की भारी बरसात है
कहीं रोटियों को तरसती आँखें है
कहीं पिज़्ज़ा से उक्ताती आंखे है
कहीं झोपड़ी को तरसते आदमी है
कहीं आदमी को निहारते मकान हैं
कहीं वस्त्र बिन मानवता बड़ी मजबूर है
कहीं किसीको अपने वस्त्रों पर गुरूर है
सामाजिक विषमताओं का सूंदर चित्रण
शिशिर जी आपका बहुत धन्यवाद
प्रकृति के व्यतिक्रम को दर्शाने के लिए अच्छी शब्द अभिव्यक्ति !!
डी के जी आपका बहुत धन्यवाद