स्नेह लुटाकर,
दुलार जताकर,
रेत पर बनाया नीड़ ।
बड़े प्यार और बड़े जतन से
उसे सजाया,
उसे निखारा,
पलकों के हर एक सपने को
उसमें सजाकर उसे निहारा।।
नयनों की इस रचना पर
मन हीं मन खुद को सराहा।
सपनो में मैं ऐसी डूबी
लहरों को समझ न पाई,
रेत के महल पर इतरा कर
लहरों से हीं मैंने प्रीत लगाई।।
टूटा भ्रम जब लहरें आईं
सपनें तोड़ वो
मुझे रूलाईं।
लहरों के संग मिल गए रेत,
सूने रह गए मेरे नेत्र।।
थकी हुई सी मेरी कदमें
वापस आ गईं सहमे-सहमे।
रेत और लहरें
रह गईं पीछे,
अब मन खुद को
हर सपने से खीचें।।
Attainment of maturity nicely worded.