जब अम्बर की चादर से सितारे हैं उघड़ते,
तब भू पर आस लगाए बैठी,
सपनो को सजाए बैठी,
मातृत्व को दबाए बैठी,
एक स्त्री के अॉचल में जा गिरते ।
देखा है मैंने एक माँ का चेहरा चमकते।।
एक ठंडा हवा का झोंका आया,
अपने संग वो कुदरत का अनमोल तोहफा लाया।
माँ ने भी अपना आँचल फैलाया ,
हवाओं ने एक खुबसूरत कली को
धीरें से गिराया,
माँ ने बड़े जतन से कली को अपनाया,
पर अफसोस –
समाज का एक टुकड़ा,
कुदरत की इस भेंट को सँभाल न पाया ।।
मासूम कली की खुशबू को
फैलने से पहले हीं,
उसकी धीमी-धीमी धड़कनों को
बढ़ने से पहले हीं,
उसकी नन्ही -नन्ही हाथों को
खुलने से पहले हीं,
उसकी मीठी सी मुस्कुराहट को
खिलने से पहले हीं,
रोक दिया गया ।
काट दिया गया ।।
माँ की खून में हीं उसकी साँसे
दब कर रह गई
कुदरत की भेंट
खून का धारा बन
कुदरत में मिल गई ।
मातृत्व के इस दर्द को
माँ चुपचाप सह गई
उसकी फैली आँचल
एक छोर से फट गई ।।
उसकी निराश आँखें
इस बार
तारों का दीप माँग रहीं,
कुलदीप माँग रहीं।
नहीं चाहती वो
एक बार फिर
कली की पंखुरियाँ कट जाए
और उसका दर्द
सिर्फ दर्द बन कर
फर्श पर बिखर जाए।।
स्त्री भ्रूण हत्या के जवलंत मुद्दे को आपने बड़े सुन्दर शब्द दिए है .
खूबसूरत रचना के माध्यम से स्त्री भ्रूण हत्या पर आपके द्वारा डाला गया प्रकाश सराहनीय है !!
Khubsurat….. Rachana
निशब्द कर देने वाली रचना …….
स्त्री का दर्द सिर्फ स्त्री ही समझ सकती है ……..
बहुत खूब. मार्मिक. आज अष्टमी पूजन का दिन है. कितना बड़ा दुर्भाग्या है की हम एक और कन्या पूजन करते हैं जबकि कुछ लोग ऐसा घिनोना कृत्या करते शर्मसार नहीं होते. कन्या ही नहीं बचाएंगे तो पूजन कैसे करेंगे? माँ भगवती ऐसे राक्षसों को सुबुद्धि दे. अप्रतिम रचना.