सफर…
छोटा ही सही
खूबसूरत था ये सफर
मुक़्तलिफ रंग देखे
हसीं थी सुबहें ,शायराना हर पहर
दीवानगी बना मेरा साया
ख्वाब के बुलबुले में मैं तैरने लगी
ज़िन्दगी की लगाम किसके हाथों चली गयी
ये समझने की फुर्सत न रही
हर पल में जीने लगे हम
दुनिया से गुमशुदा एक दूसरे में जा बसे
आँखों की जुबां गहरी होती गयी
इश्क़ के शिकंजे में जा फसें
फिर एक दिन सफर ख़त्म हो गया
जाने पहचाने हम अनजान बन गए
अनमोल उस ख़ज़ाने को संजो लिया हमने
अश्क़ों को छुपाये, हम चल दिए…
— स्वाति नैथानी
स्वाति रचना तो बहुत सुन्दर है लेकिन सुबह और सहर का अर्थ तो एक ही है. यहाँ पर रचना मेरे विचार से कुछ इम्प्रूवमेंट मांगती है.
thank you for your feedback. I’ll work on it.
रचना के भाव खूबसूरत है .., शिशिर जी का प्रश्न उचित है … …..मगर मुझे लगता है की शायद सहर की जगह शहर प्रयुक्त किया हो तो कृपया स्पष्ट करे !!
thank you for your feedback sir.