घाव दे दे कर मेरे सीने को जिसने छलनी किया
उसको इस बात पर भी अब तो हुआ ऐतराज है
मैंने जख्मों को अपने भरने की कोशिश क्यों की
मेरी तन्हाई में ही वो जब रहती खुश मिजाज़ है.
बाहें फैला के जब हम तेरे साथ को तरसते रहे
तूने हालत मेरी ना समझी ना कोई गौर किया
तेरी बातों के शूल रह रह कर हमको चुभते रहे
बढ़ती ख़ामोशी ने मुझको तभी कमज़ोर किया
अगर तू सीता सी होती तो मैं भी राम सा होता
तेरी खातिर जहाँ से लड़ता और सफल होता
अपने इस रिश्ते को तूने मगर कभी नहीं पूजा
तुझको हमसे सदा अच्छा लगा हर कोई दूजा
अपने टूटे हुए दिल को बता अब मैं जोडू कैसे
प्रेम की सूखी हुई इस धारा को अब मोडू कैसे
अपने तर्क और हठ से तू हमें कभी ना पाएगी
श्रद्धा आदर से ही प्रीत की कलियाँ मुस्काएँगी
शिशिर “मधुकर”
सात्विक प्रेम को बखूबी परिभाषित किय आपने !!
रचना पर आपकी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद निवातियाँ जी
बेवफा की बेवफाई का दिल से निकला हुआ जवाब, बहुत सुंदर मधुकर जी !