किताबों की कहानी, आनी -जानी रही
धूल ऐसी चढी, किताब रोती रही
इंतजार की इम्तहां, होती रही
और पलकें बिछाये , बैठी रही I
जब अस्तित्व ही किताबों का, मिटने लगा
जब अनपढ़ों का शिकंजा, कसने लगा
न पड़ने वाले रहे, न किताबें ही रही
उन किताबों की इज्ज़त, यूँ ही जाती रही I
जिनसे ज्ञान की गंगा, जो बहती रही
और ज्ञान भी गलियों में, यूँ ही भटकता रहा
उनका एक-एक पन्ना, यूँ ही फटता रहा
और लोगों के क़दमों में, आता रहा I
ठोकरें यूँ ही, वो खाती रहीं
यहाँ से वहाँ, बस जाती रहीं
न उनको पढ़ा, न सीखा किसी ने
किताबें अपना, अस्तित्व खोती रहीं I
उनके ज्ञान का मजाक,यूँ ही बनता रहा
सागर भी हिलौरे लेता रहा
साहित्य का परचम न लहरा सका
वो सिसकियाँ यूँ ही भरता रहा I
वो घुट -२ के किताबें, रोती रहीं
और पुस्तकालयों के कोनों में, धूल खाती रहीं
अपनी जवानी को, याद करती रहीं
और जवानी में ही, बूढी होती रहीं I
दिन पे दिन वो तो, बस गिनती रहीं
कौनों मैं पड़ी वो तो सिसकती रहीं
कभी झींगर कभी चूहे कुतरते रहे
और उनका ही भोजन होती रहीं I
कमलेश संजीदा
किताबों की दुर्दशा के माध्यम से आपने समाज में आए परिवर्तनों को आइना दिखाया है. अच्छी रचना
कविता में प्रयुक्त शब्द आसान और स्पष्ट है। शब्दों का तालमेल काफी सुंदर है। वर्तमान दशा में किताबो के अस्तित्व और उनके पढ़ने वालो पर काफी बढ़िया आधारित कविता है !!
प्रगति के युग में किताबो की कम होती प्रसिद्धि पर अच्छे विचार प्रस्तुत किये है !!