सबको पेहले से ही ये लगता था के कोई तेरा ना होगा ।
यकीन मुझे भी था के तेरे सिवाय कोई मेरा ना होगा ।
सफर मे कई हसीन चेहरे गुजरेगे सामने से मेरे पर ,
मेरी आँखो मे सिवाय तेरे किसी का चेहरा ना होगा ।
बसाई हैं मेने तेरी चाहत ईतनी ईस मुट्ठी जितने दील मै ,
मेरी शर्त हैं सारे जहाँ से समंदर भी ईतना गेहरा ना होगा ।
रोज आजाया कर ऐसे ही किसी बहाने से सामने मेरे ,
तुझे देखे बिना दिन तो होगा पर वो सुनेहरा ना होगा ।
-एझाझ अहमद
एज़ाज़ अति सुन्दर लेकिन एक दो जगह रचना सुधार मांगती है. जैसे अंत में दिन को रिपीट करने की आवश्यकता नही है
सुन्दर भाव……….. शिशिर जी के सुझाव पर अमल करे
Thank you for advice.. I edited that’s line..