बहारें थम गई फिर से लो मौसम मलिन आया
कलह से क्या मिला तुमको ना मैंने कुछ पाया
जिंदगी चल रही थी जो सब को साथ में लेकर
बिना समझे ही बस तुमने उसको मार दी ठोकर
बड़ी मुश्किल से कोई इस जहाँ में पास आता है
जिससे मिल बैठ के गम छोड़ इंसा मुस्कराता है
मगर तुमको मेरी कोई ख़ुशी अच्छी नहीं लगती
मेरी रुसवाई करने में तुम बिलकुल नहीं थकती
तुम्हारे वार सह सह कर मैं अब तक भी जिन्दा हूँ
कटे पर से जो ना उड़ पाए अब बस वो परिंदा हूँ
मेरे जीवन में जैसे सब ने मिलकर जहर बोया है
मेरा हर रोम रोम छलनी हो बिन आंसू के रोया है.
शिशिर “मधुकर”
तकरार से उत्पन्न विरह वेदना का अध्ययन कराती खूबसूरत भावनात्मक रचना !! बहुत अच्छे शिशिर जी !!
निवातिया जी आपकी सराहना का तहे दिल से शुक्रिया
bahut hi bhawnatmak kavita hai, bahut achhi kavita hai…
Hari Om, Thank you so very much for your nice words of appreciation.
nice line sir
धन्यवाद अनुज………
बहुत अच्छे मधुकर जी !
सर्वजीत जी आपकी सराह्ना के लिए आभार