वो पुरानी राह जहाँ
‘मैं’ और ‘शाम’ साथ हुआ करते थे…
अक्सर कुछ नग्में तो कुछ अफ़साने गाया करते थे….
गूंगी खामोशियाँ भी शामिल हुआ करती थी…
हमारी महफ़िल की शान बढ़ाने …..!!
वक़्त के घनघोर वन में हम खट्टे -मीठे लम्हों के पत्ते चुना करते थे…..
शीतलता की चादर पर बैठ हम अपने अनमोल सपने बुना करते थे …….
भूरी अँखियों की डिबियाँ में हम उसे कैद कर लिया करते थे…
मन बहलाने के लिए उदासी के कंचों से हम अक्सर खेला करते थे …..
ज़िन्दगी के उलझन में कही गुम सी हो गयी थी वो पुरानी राह ….
कामों के बोझ में आँखों से ओझल हो गयी थी वो पुरानी राह …
नयी कामकाजी यारी के आगे धुंधला गयी थी शाम की यारी …..
बरसों बाद आज फिर याद आ गयी वो पुरानी राह और शाम की यारी!!
बहुत सुन्दर रचना. ‘वक्त के घनघोर वन’ अतीत की बहुत उपयुक्त उपमा है
धन्यवाद मधुकर सर …..बहुत आभार आपका!!
बहुत खूबसूरत रचना, अंकिता अतीत की यादो का प्रभावशाली वर्णन किया आपने !!
बहुत-बहुत धन्यवाद निवातियाँ डी. के.सर ….