सावन मैं नयनन से,
जो बह निकले नीर,
कह देना बरखा है,
छुपा लेना पीर……
दर्द परया क्यों समझेगा कोई,
भई दुनिया जबसे निमोही,
प्रीत पर तुम्हरी उपहास करेगी,
मर्यादाओं में बांधने तुम्हे, खैंच देगी लकीर…….
मुखोटा ख़ुशी का लगाना पड़ेगा,
हस्ता चेहरा जग को देखना पड़ेगा,
रोये तो अकेले, हँसे तो संग जग सारा,
ज़िंदा नहीं हैं इंसा, चलती हैं लाशें,
मरे हुए हैं यहाँ सबके ज़मीर………
खरीदे जाने लगे हैं रिश्ते भी अब तो ,
दोस्ती भी रह गयी है, मतलब की अब तो,
खुदगर्ज़ी की पडी है, पैरों में ज़ंज़ीर,
बड़े घरों में रहने लगे हैं, दिल से फ़कीर……….
मनोअभिव्यक्ति का खूबसूरत चित्रण ….!!
मनुष्य अकेला पड़ता जा रहा है , रिश्ते नाते सब पैसों के दम पर चल रहे हैं.
रवि सुन्दर रचना है.
Thanks Dear Shishir.