“छोड़ चल दिए जंगल बाघों ने
बाजों ने भी प्रवास की ठानी है
बेवफा हुयी फिजायें है अब तो
करने को बगावत हमसे ठानी है ,
देख तमाशा देशद्रोह का
नदियों ने मुख मोड़ा है
ना रहना अब इस देश हमें
सम्मान नहीं अब थोड़ा है ,
जिस आबों हवा में सांसे ली है
जिस देश की मिट्टी में पले बढे
देते गाली उस मातृभूमि को
जिसमे है ये खेले कूदे,
नहीं रहना ऐसे गद्दारों संग
कर संकल्प विमुख हो चल दिए
हे ईश्वर रखना सलामत इसे
कुछ ऐसा प्रार्थ वे कर गए ||”
यह रचना सुन्दर है ………….
आपकी मूल्यवान प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार शिशिर जी …
ह्रदय की पीड़ा को मुखर करती बहुत खूबसूरत रचना …….!!