“गुमसुम सी इन रातों में
जब सारा जग सो जाता है
पहरा करने कोई हमपे
रातों को पास में आता है ,
हु सोया ठीक, नहीं मै
या चादर बराबर ढकी नहीं है
देखने कोई हर रोज आता है
काम बहुत है पर वो थकी नहीं है ,
सहलाके बालों को वो मेरे
ममता अपनी बिखेर जाती है
ना हो जाये देर सुबह उठने में
ये सोच,ना खुद वो सो पाती है,
कर तैयार सुबह में नाश्ता
मुझको आ दौड़ जगाती है
चल उठ जल्दी निज कर्म कर
कुछ ऐसा सन्देश सुनाती है,
दे नाश्ता मुझको वो झट से
मध्यान्ह का आहार प्रबंध करती है
भेज मुझे फिर कर्म पथ पर वो
खुद का कर्त्तव्य निभाती है ,
उम्र के साथ बड़े होते पग
क्यूँ भूल ये ममता सहज जाते है
माँ के लुटाए असीम प्रेम को
क्यूँ पल में मिट्टी कर जाते है ||”
बहुत ही सुन्दर भावनात्मक रचना है।
कविता पढने एवं पसंद करने के लिए आपका कोटि-कोटि आभार नैना जी …
आप की माँ की ममता सराहनीय है खूबसूरत हम रहै या ना रहै हमारी कलम की लक्कीरो कोई नहीं मिटा सकता
लक्ष्मण जी सही कहा आपने ..सराहना के लिए धन्यवाद ..
“आदमी मर जाते है मगर ,आवाजे कभी नहीं मरती |”
वात्सल्य भाव से सजी सुन्दर रचना !
सुन्दर मातृ प्रेम रचना ओमेन्द्र
शिशिर जी एवं मीना जी आप दोनों कवि मित्रो का हार्दिक आभार ..