आदमी, कारवाँ और आदमियत
अकेले चलकर नहीं पहुंचा है,
आदमी आदमियत तक,
आदमी आज जहां है,
कारवाँ में ही चलकर पहुँचा है,
भीड़ से मंजिल का कोई वास्ता नहीं दोस्त,
भीड़ तो हत्याएं करती है,
कारवाँ मंजिल तय करता है,
भीड़ का हिस्सा जब आदमी था,
आदमी कहां वो तो आदम था,
भीड़ में आज भी आदम हैं,
आदमियों का कारवां तो धीरे धीरे सही,
बढ़ रहा है मंजिल की ओर,
6/02/2016
अच्छी दिशावान पंक्तियां हैं|
धन्यवाद अरुण जी ..
गहरी सोच युक्त व् वर्तमान परिस्थितियों की जड़ का विश्लेषण करती तथ्य परक रचना.
धन्यवाद ‘मधुकर’ जी..
bhut gahri baat…..behtarin andaaz mein…..