माया तेरी माया को कुछ कुछ अब हम भी समझे हैं
इस धरती पर सारे मानव बस तेरे खेल में उलझे है
तुझमें मेरी आसक्ति से ही तो नवजीवन की उत्पत्ति है
पैदा होते ही मेरी ये दो आँखें तेरी ममता को तकतीं हैं
जैसे ही यौवन आता है हंसी मन में लहर सी उठतीं हैं
तेरे आगोश की चाहत में मदमस्त जवानियाँ झुकती हैं
बेटी बन जिस दिन से तू मन के घर आँगन में आती है
हर पिता की सारी शक्ति तेरी चिंताओं में लग जाती है
ऐसा वक्त भी आता है जब हमदर्दों की चाहत होती है
पर ऐसी राहों में माया तू बस अक्सर कांटें ही बोती है
जीवन के अंतिम पड़ाव पर इच्छाए ना बाकी बचती है
थकी हुई ये काया माया तब कुछ भी न कर सकती हैं
शिशिर “मधुकर”
सत्य कहा शिशिर जी ………..आदि से अंत तक जीवन किस तरह से मायाजाल में उलझ कर रहा जाता है, इसका सटीक वर्णन किया आपने..!!
आपकी सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार निवातियाँ जी
जीवन सत्य के तथ्य को उजागर करती खूबसूरत रचना !!
आपकी प्रशंसा के लिए आभार मीना जी
जीवन के उत्पत्ति से लेके देहावसान तक के संघर्षों को अच्छे शब्द दिए है आपने ..बहुत खूब शिशिर जी ..
कविता पढ़ने और सराहने के लिए धन्यवाद ओमेन्द्र