सब त्याग देंगंे तेरे लिए
पर उस घर को कैसे
जिसके आगन में पग बढ़ाना जाना
उन भाईयों को कैसे
जिनके साथ रहकर
ये अनुभव किया कि
मेरे दो हाथों के बाद भी
मेरे कई हाथ हैं
उस पिता को कैसे
जिसने कन्धे पे बिठाकर
संसार से अवगत कराया
उस माॅ को कैसे त्याग पायेंगे
जो जीवन की बुनियाद में
एक एक ईट की तरह जड़ी है
न जाने कितनी बार कितनी रातें
मेरे सलामती के लिए खुदा से लड़ी है
नहीं इनमें से कुछ नहीं त्याग सकता ,
बाकि का सब न्योछावर
तुम्हारे खातिर
तुम्हारे स्नेह की खातिर।
वाह बहुत खूब संजय जी।