गरीबी से तो मै लड़ सकता था मगर
धर्म और समाज के हाथो मारा गया !
न था अफ़सोस अपनी साधनहीनता का
मै आहत हूँ कि जाति नाम पे नकारा गया !
पहले उछाला मेरे नाम को गाली के नाम से
फिर राजनितिक रंग में उसको उतारा गया !
क्या थी कमी मुझमें, सबके जैसा इंसान था
फिर क्यों मुझे बदरंग कहके दुत्कारा गया !
मैंने भी लगाई है खून कि बांज़ी वतन पर
फिर क्यों मुझे बुरी नजर से वारा गया !
मैंने भी खूब सींचा इस पावन धारा को
खून पसीना मेरे द्वारा भी बहाया गया !
जिस्म ओ जान मेरी भी उस रब कि इनायत
फिर क्यों मुझे मंदिरो के दर से उतारा गया !
आज भी खड़ा हूँ जिंदगी के उसी मोड़ पर
जहां से था मुझे विशेष श्रेणी में डाला गया !
यूँ तो हक़ के लिए लड़ते है रोज़ कई तबके
पर उन्हें न कभी भी नजरो से गिराया गया !
न जाने क्या कमी रह गयी थी मेरे कर्म में
जो मुझे ही बेगैरती के नक्श में ढाला गया !
कुछ तो बता दो मेरा दोष ऐ दुनिया के ठेकेदारो
क्यों अभी तक नही मानवीयता से स्वीकारा गया !
गरीबी से तो मै लड़ सकता था मगर
धर्म और समाज के हाथो मारा गया….!!
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डी. के. निवातियां…………….!!!
निवातियाँ जी बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है आपने इस रचना में. मेरे विचार से जब तक जाती आधारित वर्गीकरण समाज में मजबूत रहेगा तब तक इसके ख़त्म होने की मुझे तो कोई संभावना नज़र नहीं आती. और लोग इसे कभी समझेंगे मुझे संशय है.
सत्य कहा शिशिर जी आपने …. समाज और व्यवस्था दोनों की मनोवृति में परिवर्तन की आवश्य्का है जो यंहा तो सुदूर तक नजर नही आता !!
महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद आपका !!
जातिगत वर्ण व्यवस्था पर कटाक्ष करती सुन्दर रचना ..
शुक्रिया आपका …!!
सत्यता को सामने लाती रचना
बहुत खूब
बहुत बहुत धन्यवाद आपका !!
सामाजिक कुरूतियों पर प्रकाश डालती सोचपरक रचना !!
धन्यवाद मीना जी …….!!