गर ये मजबूरी ना होती
महलों में होते
गर ये मजबूरी ना होती
इन झोपड़ियों में ना रहते
चूसते खून आवाम का
हर रोज़ पेट भरकर
ईमानदारी का जामा पहन
किसी को कुछ ना कहते
माना की ये जमीं का टुकड़ा
हमारा नहीं
लोगों ने खरीदा है कानून तक
क्या ये नाइंसाफी की ओर
इशारा नहीं
साहब
कभी महलों की दिवारों पर
तो बुलडोजर चलाओ
कभी नेताओं, भ्रष्टाचारियों के
की भी लाईन में लगाओ
हमें नहीं है मखमल पे सोने
की आदत
अलाव के पास ही रात
कट जायेगी
कभी अमीरों को भी निकालो
घरों से बाहर ठंड में
आपकी सियासी कुर्सी
तक हिल जायेगी
साहब!..!
हम पर बीती है रात भर
तो हर किसी को
अपना दुखड़ा सुनायेंगे
पता है बदनसीब हैं हम
ये सारे नेता
हमारी जलती आत्मा पर
राजनिति की रोटी सेक
चले जायेंगे
किसी गरीब को आँसुओं
में बहते हुए देखना
दिल फट जायेगा तुम्हारा
कभी अपने मकां को ढहते
हुए देखना
हम तो ऐसे ही जिते आये
आसमाँ के नीचे पका लेंगे अपनी रोटी
महलों में होते
गर ये मजबूरी ना होती
by
ALOK UPADHYAY
हिन्दी साहित्य वाटसप ग्रुप मे आपका स्वागत है……
सम्मिलित होने के लिए ९१५८६८८४१८ पर आपका मो. नं. दें….सुक्रिया !ंं
nice piem hai aapki
thnxx keep support
बहुत सुन्दर रचना है लिखते रहिए।
thnxx keep support
सुन्दर अभिव्यक्ति !! बहुत अच्छे !!
thnxx bhai…aap hi ki dua h