अगर सुकून की शक्ल होती,
अकेलेपन में खूब रोती ,
हर तरफ आवाज़ है और शोर है,
कहीं पहुँचने की सबको होड़ है,
मुझको भुला दिया है सब ने,
मेरा अस्तित्व ही मिटा दिया है सब ने,
बच्चों से छूट गया माँ का आंचल,
बच्चों संग बिताने को फुरसत नहीं दो पल,
बच्चे किस से पूछें अपने नन्हें-नन्हें सवाल,
आया ही रखे दिन भर उनका ख्याल,
ऐसा बोझ लादा है कन्धों पे स्कूल ने,
अपना बचपन जीना भूल गए ये नन्हें-मुन्ने,
पिता को फुरसत नहीं अपनी दिनचर्या से,
बीते जा रहे हैं बचपन उनके बच्चों के,
पत्नी को सँभालने हैं दफ्तर के भी काम,
पति को वक्त मिलेगा जब होगा अवकाश विराम,
अगर शुकुन की शक्ल होती,
अकेलेपन में खूब रोती ,
हर तरफ आवाज़ है और शोर है,
कहीं पहुँचने की सबको होड़ है,
मुझको भुला दिया है सब ने,
मेरा अस्तित्व ही मिटा दिया है सब ने।
Posted by Tishu Singh
सुँदर रचना…….!
अच्छी रचना है!
किन्तु हम इसका शीर्षक नहीं समझ सके… ‘शुकुन’? अर्थात?
सुकून तो नहीं?
सम्पूर्णतः सुन्दर रचना!