नफरतों की आंधी में
मोहब्बत के फूल उड़ जाते हैं
दिल लगाते हैं जो इस जहाँ में
वो अक्सर अकेले पड़ जाते हैं
गर्दिश की धूल उड़कर यूँ ही
चेहरे की ख़ुशी को ढक देती है
आँखों में आंसू रोकने पड़ते हैं
नहीं तो मजबूरी आह को हवा देती है
अंतहीन ख्यालों का दौर
चलता रहता है धड़कन की तरह
मासूमियत चेहरे पे साफ़ झलकती है
बरसों पुराने उजड़े चमन की तरह
झूठी उमीदों की ठंडी छाँव भी
दिल की हसरतों को सुखा देती है
वफ़ा के बदले वेबफ़ाईयां खरीदी हो जिसने
वक़्त की चोट अपनी असलियत भुला देती है
सफर का अंतिम दौर ही साथ देता है
वरना वफ़ा को वेबफाई की आग जला देती है
मिलन की आरज़ू ने ही चमन को थाम रखा है
नहीं तो दुनिया इंसान को अंदर तक हिला देती है
हितेश कुमार शर्मा
अंतिम पंक्तियों ने रचना को जीवंत कर दिया !!
जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद