वैस की निकाई, सोई रितु सुखदायी, तामें –
-
- वरुनाई उलहत मदन मैमंत है ।
अंग-अंग रंग भरे दल-फल-फूल राजैं,
-
- सौरभ सरस मधुराई कौ न अंत है ॥
मोहन मधुप क्यों न लटू ह्वै सुभाय भटू,
-
- प्रीति कौ तिलक भाल धरै भागवंत है ।
सोभित सुजान ’घनाआनँद’ सुहाग सींच्यौ,
-
- तेरे तन-बन सदा बसत बसंत है ॥